Saturday 15 May, 2010

Why argue on VEER SANGHAVI & BARKHA DUTTA case

...केवल वीर और बरखा ही दोषी क्यों?
हंगामा है क्यूं बरपा, दलाली के सवाल पर?


-मीडिया जगत के लिए यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है।
-इससे पहले भी कई बार पत्रकारों का नाम दलाली में आ चुका है।
-आज मीडिया के कितने दिग्गज सीना ठोककर कह सकते हैं कि वो बेदाग हैं?
-दरअसल आज की कॉरपोरेट मीडिया का यही है असली चेहरा जिसे हम देखना नहीं चाहते।
-जिसको सब जानते हैं उसका नाम आए तो बवाल और अपने ऊपर के अधिकारी को कौन देख रहा?


हंगामा है क्यूं बरपा वीर-बरखा के नाम पर, हंगामा है क्यूं बरपा दलाली के सवाल पर।। ऐसे में दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है..

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

आग, वो वाकई आग ही है जो हम पत्रकारों को सभी से जुदा करती है। कुछ नया ढूंढऩे की आग, कुछ नया करने की आग, कुछ नया लिखने की आग और यह आग ही है जो हम सभी को आगे ले जाने में मददगार साबित होती है।

मैं मुद्दे से भटका नहीं केवल वो प्रस्तावना लिख रहा था जो हम सभी को मुद्दे से न भटकने दे। दरअसल मैं न तो वीर-बरखा का समर्थक हूं और न हीं उनका विरोधी। आजकल मीडिया के बहुचर्चित मंच भड़ास4मीडिया पर इन दोनों के बढ़ते हिट्स ने मुझे भी इस पर कुछ लिखने पर विवश किया। मीडिया घराने आज कॉरपोरेट हो गए हैं। इनमें संपादकों की जगह मार्केटिंग और सेल्स के वाइस प्रेसीडेंट और मैनेजर्स हावी हो चुके हैं। एडिटोरियल का मीडिया घराने में दखल इनके मुकाबले काफी कम हो चुका है। अब संपादकों और संपादकीय टीम की औकात बाजार से पैसे लाने वाली टीम से काफी कम हो चुकी है।

वीर-बरखा आज मीडिया के वो ताजा चेहरे बन चुके हैं जिनका नाम खुले रूप से दलाली और गैरमीडिया हरकतों में शुमार हो चुका है, सभी के सामने आ गया है, सीबीआई की जांच में खुल चुका है। कॉरपोरेट जगत की शतरंजी बिसात में मंत्रियों को मोहरों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए नीरा राडिया, वीर संघवी, बरखा दत्त एक ओर से खेल रहे हैं और दूसरी ओर से कॉरपोरेट जगत के दिग्गज। यह वो कॉरपोरेट टाइकून हैं जो अपने हित साधने के लिए इन्हें पैसे देकर अपना मोहरा सही जगह फिट करते हैं।
पर क्या हम केवल वीर और बरखा को ही दोषी करार दें? क्या वीर-बरखा ही मीडिया की दाल में कुछ काला हैं? क्या वीर-बरखा के अलावा बाकी मीडिया पाक-साफ और वंदनीय है? क्या वीर-बरखा ने ऐसा कुछ किया है जो आज तक किसी और मीडियाकर्मी ने नहीं किया? क्या मीडिया हस्ती के रूप में शुमार हो चुके वीर-बरखा इस पचड़े में शामिल हैं इसलिए ही इतना बवाल मचा हुआ है? क्या इनके काले कारनामें सामने आने के बाद से मीडिया के दिग्गज और छुटभैय्ये ऐसा कुछ नहीं करेंगे? क्या मीडिया आज अपने उसूलों पर खरी उतर रही है? क्या आज मीडिया अपने वास्तविक पथ पर चल रही है? और भी न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में कौंध रहे हैं।
आप मानें या न मानें, हलक से नीचे उतरे या नहीं लेकिन हकीकत से रूबरू हो जाने में ही समझदारी है। आज मीडिया घराने दरअसल दलाली का एक गढ़ बन चुके हैं। कभी मीडिया घराने के मालिक का कोई काम, कभी संपादक का और कभी मार्केटिंग के वाइस प्रेसीडेंट का। हर बॉस का काम कराना पत्रकारों की मजबूरी भी है और इसके लिए वो नैतिक या अनैतिक रास्ता नहीं देखते। कैसे भी और कुछ भी की तर्ज पर उनके काम कराना जरूरी और मजबूरी होता है। मेरा लेख पढऩे वाले आप में से शायद ही कोई हो जो इस हकीकत से वास्ता न रखता हो।
अब बात करते हैं दलाली की। आज मीडिया का दूसरा चेहरा दलाली ही हो गया है। बड़े मीडिया हाउस और बड़ी मीडिया हस्तियां बड़ी दलाल और छोटे पत्रकार और मीडिया के छोटे घराने छोटे दलाल। दोनों एक दूसरे को फूटी कौड़ी नहीं सुहाते लेकिन एक हमाम में हैं तो दोनों बखूबी वाकिफ हैं कि हम दोनों नंगे हैं। अगर नहीं मानते हैं तो जितनी भी मीडिया हस्तियों के नाम पता हों उनके घर का पता ढूंढि़ए उनके घर पहुंचिए और देखिए उनके ऐशोआराम। मीडिया में होने के नाते सभी दिग्गजों का पहला पता तो आम लोगों के लिए कुछ आम टाइप ही होगा। लेकिन उनके किसी बेहद करीबी से पता करिए तो पता चलेगा कि सर का किस शहर में कितना बड़ा प्लॉट है और किस हॉट सिटी में कितने बेडरूम का लग्जरी फ्लैट। उनके कितने बैंक अकाउंट हैं और किसमें कितना पैसा है? उनकी पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों की क्या हैसियत है और वे कहां सेट हैं? उनके रिश्तेदारों के अकाउंट में कितना पैसा है? साथ ही न जाने कितनी और जानकारियों से आप हैरान परेशान हो जाएंगे।
...टेंशन लेने की जरूरत नहीं बस केवल इतना सोचने की हिम्मत जुटाईए कि मीडिया में केवल एक वीर और एक बरखा ही ऐसे नहीं हैं जो दलाली, मोटी कमाई और अपने उसूलों से समझौता करके आज हर ऐशोआराम के स्वामी बन गए हैं। उनके रिश्तेदारों के पास आज हर लग्जरी सुविधाएं हैं। पर देखना कौन चाहता है यार? क्योंकि मेहनत से जी चुराना हम सभी को भाने लगा है। हकीकत न देखना मीडिया कर्मियों का शगल बनता जा रहा है। हकीकत न देखने के ज्यादा पैसे मिलते हैं और हकीकत बयां करने पर कानूनी नोटिस, दुश्मनी, बॉस की फटकार और नौकरी जाने का खतरा मंडराता रहता है। इसलिए मीडिया के अधिकांश लोग आज आंखें मूंद लेने में ही भलाई समझते हैं। आज मीडिया संस्थानों में अनुशासन, कर्मठता, सदाचारी, सत्य-तथ्य आदि के भाषण बाचने वाले दिग्गजों के गिरेबान में झांककर देखिए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

वीर-बरखा ने यह किया इस पर मुझे बस केवल इतना आश्चर्य हुआ कि इन दोनों को क्या जरूरत थी? इनके पास पैसा, पॉवर, प्रतिष्ठा, बैक अप और भी बाकी सबकुछ मौजूद था तो इन्होंने अपनी साख का जुआं क्यों खेला? क्यों इन्होंने बदनामी का डर किए बिना खुद को बेच दिया और लाखों प्रशंसकों का दिल तोड़ दिया? लेकिन अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो होना था हो चुका। अब हमारे सामने केवल हकीकत और सुबूत हैं जिनकी बदौलत हमको निर्णय लेकर आगे का सफर पूरा करना है।

क्या यही है मीडिया की हकीकत?

क्या आपने कभी सोचा है कि मीडियाकर्मियों का वेतन उनके बराबर डिग्री पाने वाले बीटेक-एमबीए से क्यों कम होता है? क्यों मीडिया में डिग्री-डिप्लोमा की अहमियत नहीं होती? क्यों मीडियाकर्मी कम पैसों में और मुफ्त में भी नौकरी करने के लिए तैयार रहते हैं?
क्योंकि मीडिया एक ऐसा सशक्त और जुगाड़ू माध्यम है जिसका सही से और दिमाग से इस्तेमाल करने वाला पैसे के लिए परेशान नहीं होता। उसे जितना चाहिए होता है वो उससे भी ज्यादा का जुगाड़ खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है। आज भी मीडिया में आने वाले नए युवा तेवर, ईमानदारी, जानकारी, बोलचाल, हुनर, लेखन, संपादन में बेहतर हैं, उनके अंदर मीडिया की आग से खेलने का जज्बा है लेकिन उन्हें सही जगह नहीं मिल रही। गाहे-बगाहे किसी को मिली भी तो उसे वरिष्ठों या फिर घाघों ने जमने नहीं दिया और साठ गांठ से बाहर का रास्ता दिखवा दिया।
किसी भी मीडिया घराने के खातों की तिमाही-छमाही-सालाना रिपोर्ट उठा लीजिए मुनाफे के आंकड़े देखकर उसके कद का अंदाजा सहज ही हो जाएगा। लेकिन इस मुनाफे के लिए जिम्मेदार पत्रकारों और कर्मियों को इस मुनाफे का कोई हिस्सा नहीं मिलता। आईआरएस और टीआरपी में पहले से पांचवें पायदान पर काबिज चैनल और अखबारों की प्रतियां बढ़ती जा रही हैं लेकिन उनके कर्मियों को आज भी सरकारी चतुर्थ वर्ग के समान भी वेतन नहीं मिल रहा है। महंगाई को देखते हुए सरकार छठा वेतनमान लगा चुकी है लेकिन मीडिया में वेतन का कोई पैमाना आज भी नहीं लग सका। आखिर इसकी क्या वजह है? क्यों मीडिया घरानों के मालिक पत्रकारों को इतना कम वेतन देते हैं? जाहिर सी बात है उन्हें पता है कि मीडियाकर्मी जुगाड़ करके रोजी रोटी के अलावा घरबार भी जुटा लेते हैं। मीडिया घरानों के मालिकों और संपादकों को बखूबी पता है कि इतने कम वेतन में काम करने वाला व्यक्ति अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाथ पैर तो मारेगा ही और इससे उनके भी हित सधेंगे। उनके कानूनी-गैरकानूनी काम आसानी से एक झटके में हो जाएंगे।
मेरी राय है कि अब मीडियाकर्मियों को एकजुट होने का वक्त आ चुका है। आज जरूरत है कि टीवी, रेडियो, अखबार, मैगजीन, वेब आदि के मीडियाकर्मी एक मंच पर एक संगठन से जुड़ें और दूसरे के हितों को मसाला बनाकर बेचने की जगह खुद के हकों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों के मालिकों को बता दें कि हम कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे नहीं हैं जो हमारे बराबर डिग्री धारी से कम वेतनमान पर काम करें। संशोधित वेतनमान और सम्मान की मीडियाकर्मियों को भी दरकार है। दूसरों की आवाज को उठाने वाले अगर खुद एक जुट होकर खड़े हो जाएं तो इतिहास बन जाएगा, एक नया अध्याय जुड़ जाएगा और अपने हितों को साधने में जुटे कुकुरमुत्ते की तरह आ रहे नए मीडिया घरानों के मालिकों को उनकी फौज की ताकत का पता चल जाएगा।
और जिस दिन मीडियाकर्मियों को उनके खर्चे पूरे करने लायक जायज वेतन मिलने लगेगा दावे के साथ कह सकता हूं कि उस दिन मीडिया में दलाली की दाल नहीं गलेगी। मीडियाकर्मी छोटे हितों के लिए समझौता करना छोड़ देंगे और फिर से हमारे देश को एक नया और सशक्त मीडिया मिल सकेगा।

एक नए सवेरे के इंतजार में

आपका

कुमार हिंदुस्तानी

Sunday 11 April, 2010

NCR's Temerature Rising B'coz

एनसीआर में तेज गर्मी का कारण सिर्फ बढ़ता पारा ही नहीं बहुत कुछ और भी है

दिल्ली की सर्दी...गाना बहुत फेमस हुआ और सर्दियों में पारे के नीचे गिरने से पिछले कई वर्षों के रिकार्ड टूटे। लेकिन सिर्फ सर्दी ने ही सबको रूलाया ऐसा नहीं है, यहां की गर्मी भी लोगों को पसीने से तर बतर कर तड़पा रही है। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र में सबसे ज्यादा तरक्की की ओर बढ़ता वह क्षेत्र जहां पर हर कोई अपना आशियाना बनाने की चाह रखता है। लेकिन इस क्षेत्र में लगातार उंचाईयां छू रहे पारे के कारण बढऩे वाली गर्मी ने यहां के लोगों को किसी अन्य जगह या फिर किसी पहाड़ी जगह पर जाने के लिए मजबूर कर दिया है। क्या सिर्फ बढ़ता हुआ तापमान ही इस बेइंतहा गर्मी का मुख्य कारण है या फिर कुछ और वजह भी है।
दरअसल, प्रकृति ने भी अपने आपको एक निराले और बेहतरीन विज्ञान से निर्मित किया है और समय-समय पर अपने आपको संवारती भी रहती है। जैसे किसी को भी अपने कामों में किसी अन्य का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होता, वैसे ही प्रकृति भी किसी भी तरह की छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती। यही वजह है कि जितना हम रोज प्रदूषण फैला रहे हैं प्रकृति भी हमको तेज गर्मी, आंधी, तूफान, सूनामी, बिजली, मूसलाधार बारिश, भूकंप सहित न जाने कितनी ही तकलीफें पहुंचा कर अपने संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश कर रही है।
आज आधुनिकीकरण की दौड़ में जंगल और पेड़ों को काटकर शहरों का निर्माण हो रहा है जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है। एनसीआर में प्रतिदिन दर्जनों इमारतों का निर्माण होना, लाखों वाहनों और हजारों फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं, जहरीली गैसों का अत्याधिक उत्सर्जन सहित न जाने कितने ही तमाम कारण है जो यहां की गर्मी को सिर्र्फ पारे के हिसाब से ही नहीं कई अन्य वजहों से भी बढ़ा रहे हैं।
मौसम विभाग के वैज्ञानिक का कहना है कि काफी हद तक यह सही है कि गर्मी लगने का कारण सिर्फ पारे का चढऩा ही नहीं होता। हमारे आसपास बनी हुईं हजारों फैक्ट्रियां प्रतिदिन वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साईड, सल्फर डाई ऑक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साईड व मीथेन सहित न जाने कितनी ही अन्य हानिकारक और जहरीली गैसें घोलती हैं। इसके साथ ही वाहनों से निकलने वाला धुआं, पुराने हो चुके एअर कंडीशनर व फ्रिज, टायर व पॉलीथीन जैसी गंदगी को जलाना, नॉन रिसाइक्लेबिल प्रोडक्ट्स का प्रयोग, भवन निर्माण में उठने वाली धूल सहित कई ऐसे भी कारण है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे वातावरण को प्रदूषित करने के साथ ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा रहे हैं।
वातावरण में गर्मी बढऩे का एक कारण तो ग्लोबल वार्मिंग है ही लेकिन हमारे द्वारा प्रदूषण फैलाने से हमारा लोकल एटमॉशफीयर गर्म होकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ाता है। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग सिर्फ एक ही जगह से नहीं बढ़ती है बल्कि इसके लिए पूरा विश्व जिम्मेदार है।
हमारे क्षेत्र में प्रदूषण बढऩे से गैसों ने एडमॉशफीयर की सबसे निचली सतह लोअर ट्रोपोस्फीयर के पास तक गैसों की एक लेयर(पर्त) बना दी है। जिससे हमारे आस पास का तापमान बढऩे से हमारे आस पास की हवा गर्म हो जाती है और इन प्रदूषित गैसों की पर्त के कारण ज्यादा उपर नहीं उठ पाती। चूंकि यहां पर पेड़ों की संख्या पर्याप्त न होकर कम है इसलिए यह गर्म हवा चारों ओर चलती रहती है। जिसके फलस्वरूप हमकड्ड भारत के ज्यादातर क्षेत्रों की तुलना में यहां पर गर्मी कुछ ज्यादा ही महसूस होती है।

गर्मी लगने के मुख्य कारण-

-फोटो सेंथेसिज(प्रकाश संश्लेषण क्रिया)- सूरज की रोशनी और वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साईड गैस को पेड़ों की पत्तियां शोषित कर लेती हैं और वातावरण में ऑक्सीजन गैस उत्सर्जित करती हैं। पेड़ों की कमी से वातावरण में जहरीली गैसों की बढ़ोत्तरी, ऑक्सीजन की कमी, ठंडी हवा की कमी और भूगर्भ जल स्तर की गिरावट होती है। जिसके फलस्वरूप हम गर्म हवा, लू, ज्यादा तापमान, उमस की शिकायत करते हैं।

-ह्यïूमिडिटी- हवा में वाष्प की मात्रा को कहते हैं। हाई ह्यïूमिडिटी में पसीना निकलने में परेशानी होती है और ज्यादा गर्मी लगती है।

-कंफर्ट इंडेक्स- ह्यïूमिडिटी और तापमान के संयुक्त प्रभाव को कहते हैं। दोनों के बढऩे से कंफर्ट इंडेक्स बढ़ता है और गर्मी ज्यादा परेशान करती है।

Tuesday 6 April, 2010

Worlh Health Day: Unsafe Syringes & Increasing Patients

असुरक्षित इंजेक्शन का प्रयोग दे रहा अनचाही बीमारियों को न्यौता

तेजी से बढ़ते जा रही तकनीकी और विज्ञान के नवीन अनुप्रयोगों के बावजूद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। प्रतिवर्ष सात अप्रैल को मनाए जाने वाले विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष रूप से यह जानकारी आपको जरूर चौंकाएगी। रिपोर्ट के अनुसार विश्व के विकासशील देशों में प्रयोग किए जाने वाले आधे से ज्यादा इंजेक्शन असुरक्षित होते हैं। जिनसे बीमार को फायदा कम और अनचाही बीमारियां ज्यादा मिलती हैं। बढ़ती कालाबाजारी और अप्रशिक्षित कर्मचारियों के कारण हमारे देश के सरकारी अस्पतालों में भी लगभग सत्तर फीसदी इंजेक्शन असुरक्षित हैं।
वल्र्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन (डब्लूएचओ) की मानें तो विकासशील देशों में कई खतरनाक और अनचाही बीमारियां मुफ्त मेंं मिल रही हैं। हालांकि अनचाही बीमारियां पाने वालों में सबसे ज्यादा संख्या गरीब और किसानों की हैं जो धनाभाव के कारण झोलाछाप और छोटे-मोटे चिकित्सकों से अपना इलाज कराते हैं। गरीबों से पैसे ऐंठने के फेर में यह चिकित्सक इनको हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी, एड्स जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बना रहे हैं।
हिंदुस्तान सहित कई विकासशील देशों में असुरक्षित सिरिंज का इस्तेमाल मौत को दावत दे रहा है। थोड़े सा पैसे कमाने के फेर में झोलाछाप डाक्टर्स और नीम-हकीम एक सिरिंज को कई बार इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा पिछड़े इलाकों में तमाम कंपनियां भी एक बार प्रयोग हो चुके इंजेक्शन को दोबारा नई पैकिंग में बेच देती हैं। कुशल कंपाउडर्स और अटेंडेंट की कमी भी इंजेक्शन को संक्रमित कर देती है। देश में आज भी काफी अस्पतालों में कांच के इंजेक्शन जो अच्छी तरह से स्ट्रलाइज नहीं होते प्रयोग किए जाते हैं। इन सभी का इस्तेमाल सिर्फ बीमारियों को न्यौता ही दे रहा है।

क्या कहती है शोध रिपोर्ट
सरकारी अस्पतालों को दिए जाने वाले लगभग 35 प्रतिशत इंजेक्शन पूरी तरह से स्ट्रलाइज नहीं होते जबकि लगभग 34 फीसदी खराब रखरखाव और अप्रशिक्षित कर्मियों के द्वारा प्रयोग किए जाने से संक्रमित हो जाते हैं। देश में करीब 75 फीसदी सिरिंज प्लास्टिक के होते हैं जबकि अन्य कांच के। निजी अस्पतालों में भी करीब 59 फीसदी इंजेक्शन संक्रमण फैलाते हैं।

संक्रमित इंजेक्शन से भारत की बीमारियों का ब्यौरा
-53.6 प्रतिशत हेपेटाइटिस बी
-59.5 फीसदी हेपेटाइटिस सी
-24.3 फीसदी एचआईवी एड्स

-5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 71 फीसदी इंजेक्शन दिए जाते हैं जबकि 25 से 59 वर्ष के लोगों को 70 फीसदी।
-48.1 प्रतिशत हर प्रेसक्रिप्शन में इंजेक्शन की सिफारिश की जाती है।

क्यों होता है संक्रमण
-सही ढंग से स्ट्रलाइज न होना
-सुई को दोबारा इस्तेमाल करना
-इंजेक्शन की री-पैकिंग
-बायो-वेस्ट मैनेजमेंट की कमी
-कांच के इंजेक्शनों का इस्तेमाल
-अप्रशिक्षित कर्मियों द्वारा प्रयोग करना
-नियमित ड्रग्स और इंसुलिन लेने वाले
-झोलाछाप डाक्टर्स द्वारा

आटो डिसेबल सिरिंज है निवारण
देश भर में हर साल लाखों लोगों में संक्रमण फैला रहा इंजेक्शन को देखने से सही या खराब का फैसला नहीं किया जा सकता। कई कंपनियों द्वारा बाजार में लाया गया आटो डिसेबल सिरिंज (एडीएस) काफी कारगर साबित हुआ है। एडीएस इंजेक्शन में ऐसी प्रणाली इस्तेमाल होती है जिससे इसके प्रयोग के बाद यह स्वत: ही लाक होकर बेकार हो जाता है और दोबारा इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता।

सावधानी भी है बचाव
-हमेशा प्रतिष्ठित मेडिकल स्टोर से इंजेक्शन खरीदें
-बिल से जरूर लें
-जांच ले कि इंजेक्शन की पैकिंग सही है
-कांच का इंजेक्शन लगवाने से मना कर दें
-डिस्पोजेबल सिरिंज को इस्तेमाल के बाद नष्ट कर दें
-अस्पतालों में बायो-वेस्ट मैनेजमेंट का सही प्रयोग हो
-झोलाछाप डाक्टर्स और नीम-हकीम से इलाज न कराएं

Thursday 1 April, 2010

Beware, someone is making u fool

आज रहिए कूल, ताकि कोई बना न दे अप्रैल फूल

एक तारीख मतलब अप्रैल फूल किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। खासकर उन व्यक्तियों के लिए जो दीन-दुनिया से बेखबर अपने में ही खोए रहते हैं। आज कूल बने रहना आपको कई मुसीबतों से बचा सकता है। किसी दोस्त के एसएमएस, पड़ोसी की गुगली, गर्लफ्रैंड की फोनकाल या फिर किसी सहकर्मी की ई-मेल देखने के बाद हर तरीके से सोच समझ कर ही कोई कार्य करना आपको हंसी का पात्र बनाने से बचा सकता है।
हर साल की तरह आज एक अप्रैल यानी कि अप्रैल फूल डे है। यह वही दिन है जिस दिन दुनिया भर के हर कोने में लाखों-करोड़ों लोग मजाक बन कर रह जाते हैं। समय के साथ हाईटेक होते लोग भी अप्रैल फूल बनाने के लिए एक से बढ़कर एक तरीके एख्तियार कर रहे हैं। अब दोस्तों को पुराने तरीकों से बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा। इसके लिए इंटरनेट काफी मददगार साबित हो रहा है।
अप्रैल फूल बनाने के लिए इंटरनेट पर हजारों वेबसाइट मौजूद हैं। जिनमें एक से एक मजेदार और फुलप्रूफ तरीके बताए गए हैं। कुछ तरीके तो इतने मजेदार हैं जिनको कोई बिना मूर्ख बने समझ ही नहीं सकता है। जैसे काफी मग में व्हाइट पेपर (सफेद मिर्च) लगाकर काफी सर्व करना किसी के पकड़ में नहीं आने वाला।
एक से बढ़कर एक जबर्दस्त एसएमएस और ग्रीटिंग्स की भरमार है। बहाने भी इतने सालिड हैं कि वाकई अब दोस्तों की खैर नहीं।

बाक्स
क्या करें ताकि न बन पाएं अप्रैल फूल
-कोई भी एसएमएस, फोनकाल या ई-मेल का न तो तुरंत रिप्लाई और न हीं कोई निर्णय लें
-अपने दोस्तों से विशेषरूप से सावधानी बरतें
-अचानक बने पार्टी वगैरह के कार्यक्रम में शिरकत करने से बचें
-कहीं भी जाने पर सोच-विचार कर ही कोई कार्य करें
-सिर्फ करीबी ही नहीं अनजान लोग भी आपको बेवकूफ बनाने में खुश होते हैं

बेवकूफ बनाने से पहले सोचें जरूर
-ध्यान रखें कि मजाक केवल एक हद में ही होता है
-अप्रैल फूल बनाने के चक्कर में किसी की भावनाओं, जाति-धर्म, मासूमियत या विश्वास का फायदा न उठाएं
-अनजान को मूर्ख बनाने से पहले प्रतिक्रिया के बारे में सोच लें
-शारीरिक या फिर सामाजिक स्तर पर मखौल उड़ाने से बचें
-सोचें कि यदि आप उस जगह होते तो क्या करते

यदि बन ही जाएं तो क्या करें
-संयमित होकर अपने को समझाएं कि यह केवल एक मजाक है
-गुस्सा या झगड़ा न करें
-गंभीर स्थिति में फंस गए हों तो बड़ी ही सूझबूझ से अपने आप को बाहर निकालें
-किसी पब्लिक प्लेस पर मजाक बनने पर मुस्कराते हुए धन्यवाद देना आपकी महानता व्यक्त करेगा
-केवल एक प्यार भरी हंसी सामने वाले का भी मजाक बना सकती है

पिछले कुछ सालों के प्रसिद्ध किस्से
अप्रैल फूल अब बहुत बड़े स्तर पर बेवकूफ बना रहा है। इसके लिए तमाम लोग मीडिया और हाइटेक संचार यंत्रों का भी सहारा लेने से नहीं चूकते। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर के तमाम ऐसे किस्से जिन्होंने हजारों लाखों लोगों को बेवकूफ बनाया।
-ब्रिटनी स्पियर्स और संजय का विवाह
-बिल गेट्स का इस्लाम धर्म कबूलना
-बीएमडब्लू कार, स्पेस सैटेलाइट, जीपीएस सिस्टम आदि से संबंधित कई खबरें
-मंगल ग्रह पर पानी की खबर
-विंडोज कंप्यूटर सिस्टम पर है विंडोज वायरस की ई-मेल

Sunday 21 March, 2010

Dr. Kumar Vishwas Latest & Exclusive Video 1 @ Grater Noid a

Dr. Kumar Vishwas Latest & Exclusive Video 1 @ Grater Noida
on 12 march 2010

In this video he first time added some lines in his famous poetry.....Koi deewana kahta hai koi pagal samajhta hai........

These are as

Karoon kuch bhi magar duniya ko sab achcha hi lagta hai,
mujhe tum bin magar duniya me kuch achcha nahi lagta.



Tuesday 16 March, 2010

Exclusive Interview Of Dr. Kumar Vishwas

'करूं कुछ भी मैं अब दुनिया को सब अच्छा ही लगता है,
मुझे कुछ भी तुम्हारे बिन मगर अच्छा नहीं लगता।Ó


युवाओं में लोकप्रिय एक इडियट रैंचो हंै डॉ. कुमार विश्वास

*एक निरपेक्ष और निडर कम्यूनिकेटर बनना चाहता हूं*
*मैं तो युवाओं की भावनाओं के संवाद का जरिया मात्र हूं*

भारत ही नहीं बल्कि विदेशों के भी लाखों युवाओं ने सैकड़ों बार उन्हें सुना, पढ़ा, डाउनलोड और फॉरवर्ड किया है। लाखों युवाओं के लिए वो एक जीता जागता संदेश हैं। अंर्तआत्मा की आवाज सुनकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ी और पीसीएस की नौकरी को लात मार दी। देश के विकास में युवाओं को एकजुट करने वाले, इंजीनियरिंग-मेडिकल-मैनेजमेंट छात्रों के अलावा नौकरीपेशा युवाओं के बीच बहुचर्चित और मोती जैसे शब्दों को अपनी दिलकश आवाज में पिरोकर कभी हंसाने तो कभी रुलाने वाली अंतरराष्ट्रीय शख्सियत का नाम है डॉ. कुमार विश्वास।

जी हां, कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है और पगली लड़की जैसी कविताओं के जरिए युवाओं के दिल में राज करने वाले डॉ. कुमार आज के युवाओं के बीच थ्री इडियट्स के एक इडियट यानी रैंचो बन चुके हैं। पेश है अपनी आवाज और शब्दों के जादू से युवाओं को झकझोर देने वाले डॉ. कुमार से पहली बार हुई किसी खास बातचीत के महत्वपूर्ण अंश।

प्रश्न: आपको क्या कहें वर्चुअल कवि, मोटीवेटर या फिर कुछ और?

डॉ. कुमार-मैं पारंपरिक कवियों की श्रेणी का नहीं बल्कि नई जमात का कम्यूनिकेटर मात्र हूं। उस जमात का जो बेहतर कम्यूनिकेशन के अभाव में एनरिके इग्लेसियस के सम बॉडी को सुन रही थी, फ्रैंड्स देख रही थी। इनको एक ऐसा शख्स चाहिए था जो इनके दिल की बात कहे, इसलिए नियति ने मुझे चुन लिया।

प्रश्न: पढ़ाई और ह्रदय परिवर्तन की क्या कहानी है?

डॉ. कुमार-ये बहुत लोकप्रिय और बदनाम कहानी हो चुकी है। मैं निम्नमध्यम वर्गीय परिवार से हूं जहां पर रोटी के लिए संघर्ष करना जरूरी होता है। मेरे दौर में आज की तरह पढ़ाई के विकल्प नहीं थे। पिता जी ने मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और शारीरिक शक्तियां प्रयोग कीं। राष्ट्रीय स्तर पर 99वीं रैंक से एमएलएनआर इलाहाबाद में इंजीनियरिंग के लिए चयनित हुआ। पहले सेमेस्टर के बाद रजनीश की किताब माटी कहे कुम्हार से पढ़ कर लगा कि नियति के विपरीत नहीं जाना चाहिए। मेरा ह्रदय तो हिंदी में रचता-बसता है तो फिर यह उल्टी धारा क्यूं। फिर मैने स्नातक किया। परास्नातक प्रथम वर्ष में यूपीपीसीएस में चयनित हुआ, मुरादाबाद की एक जगह पर साढ़े तीन माह सहायक जिला परियोजना अधिकारी रहा। लेकिन फिर लगा कि क्यों प्रदेश और देश को बर्बाद किया जाए (हंसते हुए)। लेकिन नौकरी करने का जो कारण था वो चला (चली) गया, जबकि नौकरी पा चुका था। परास्नातक में विश्वविद्यालय टॉप किया। लेकिन नियति को यहीं मंजूर था। परास्नातक पूर्ण किया और उसी वर्ष यूजीसी में चयनित हो गया। तबसे कॉलेज में पढ़ा रहा हूं लेकिन गत चार वर्षों से बिना वेतन हूं लेकिन अब नहीं लगता कि नौकरी कर पाऊंगा।

प्रश्न: अखबार-टीवी से अलग इंटरनेट पर इतनी प्रसिद्धि के पीछे आपकी साजिश तो नहीं?

डॉ. कुमार-देखिए मैं मीडिया फ्रैंडली नहीं हूं। हालांकि मीडिया जगत के तमाम बड़े दिग्गज मेरे पुराने मित्रों में से हैं। इसी कारण के चलते मैं देश के एक काफी बड़े टीवी चैनल के बुलावे पर भी नहीं गया। लॉफ्टर शो में नहीं गया और आज भी बिग बॉस थ्री के लिए मुझे ट्रेस किया जा रहा है। लेकिन मैंने मना कर दिया। क्योंकि मैं जानता हूं कि वो मेरे कम्यूनिकेशन स्किल्स और लफ्फाजी से कमाना चाहते हैं। इसलिए एक ऐसा निरपेक्ष कम्यूनिकेटर बनने का मन है जो न किसी से डरता हो और न किसी की चिंता करता हो। कुछ सोचा समझा यह कार्य नहीं है बल्कि मेरे प्रशंसकों और चाहने वालों द्वारा इंटरनेट और यूट्यूब के जरिए फैलाया गया है। विश्व भर के लाखों युवा नियमित तौर पर मुझे ऑनलाइन तलाश किया करते हैं।

प्रश्न: इतने तल्ख विचार, क्रांतिकारी वक्तव्य और प्रेम, देशप्रेम, सौहार्द में डूबी कविताओं के जरिए आखिर आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहते हैं?

डॉ. कुमार-देखिए मैं जिनसे बात कर रहा हूं उनसे कोई बात नहीं करता। कक्षा नौ में पहुंचते ही उन्हें ट्रिग्नोमेट्री पकड़ा दी जाती है। फिर उन्हें भेज दिया जाता है कोटा जहां पर इंजीनियरिंग की तैयारी के बाद इंजीनियरिंग में दाखिला लिया जहां प्रोफेसर्स की टेढ़ी नजर हमेशा उनपर बनीं रहती है। वे बच्चे न तो पूरी तरह से अपने मन का कर पाते हैं और न ही अपने शिक्षकों, अभिभावकों की चाहत पर खरा उतर पाते हैं। लेकिन उससे कोई कम्यूनिकेट ही नहीं कर रहा है। देश का वो सबसे सशक्त तबका घुटा जा रहा है। क्या हमारे लिए यह एक बड़ी ही सोच का विषय नहीं है कि एक क्लर्क ने अपनी मेहनत और फंड की जोड़ी गई कमाई से पढ़ाकर अपने बच्चे को इंजीनियर बनाया। बच्चे ने कानपुर आईआईटी से एमटेक किया और चार माह तक उसे प्लेसमेंट नहीं मिला तो उसने आत्महत्या कर ली। इसलिए न तो मेरी रामदेव बनने की इच्छा है और न ही किसी राजनीतिक दल से जुडऩे की इच्छा है (जिनके तमाम प्रस्ताव मेरे पास हैं)। न तो मुझे स्वर शक्ति का दुरुपयोग करने की इच्छा है। मैं तो एक ऐसा कम्यूनिकेटर बनना चाहता हूं जो दो पाइप के बीच वाल्व का काम करे। जिससे युवाओं की ऊर्जा को देश के लिए, उनके घरों के लिए और मानवता के लिए इस्तेमाल कर सकूं। अगर मैं युवाओं के पास जाकर उनसे कहता है कि यह करो यह मत करो तो वे कतई नहीं मानते। इसलिए अपने जीवन की घटनाओं और परिस्थितियों के अलावा आसपास की घटनाओं पर गौर किया और उन्हें सुनाने लगा। संयोगवश मेरी रचनाएं युवाओं ने इतनी पसंद कीं कि उन्हें इंटरनेट, यूट्यूब, आईपॉड के जरिए दुनियाभर में पसंद किया जाने लगा। आज युवा जमकर मुझे सुन रहे हैं और तमाम मेरी बात भी मान रहे हैं।

प्रश्न: नाम बताना चाहेंगे उस कारण का।

डॉ. कुमार-तुम्हारे आंखों की तौहीन है जरा सोचो, तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है।। अब क्या जरूरत रह गई नाम बताने की।

प्रश्न: कुछ पंक्तियां हमारे युवाओं के लिए सुनाएंगे?

डॉ. कुमार-चलिए सबसे पहले आप को वो पंक्ति सुनाता हूं जो आज से पहले किसी भी महफिल में नहीं सुनाई। यूट्यूब या कहीं पर भी यह पंक्तियां नहीं मिलेंगी। बिल्कुल ताजी हैं।

'कोई कब तक महज सोचे कोई कब तक महज गाए,
इलाही क्या ये मुमकिन है कि कुछ ऐसा भी हो जाए।
मेरा मेहताब उसकी रात के आगोश में पिघले,
मैं उसकी नींद में जागूं वो मुझमें घुल के सो जाए।
कोई मंजिल नहीं जचती सफर अच्छा नहीं लगता,
अगर घर लौट भी आऊं तो घर अच्छा नहीं लगता।
करूं कुछ भी मैं अब दुनिया को सब अच्छा ही लगता है,
मुझे कुछ भी तुम्हारे बिन मगर अच्छा नहीं लगता।।Ó

Friday 12 March, 2010

Dr, Kumar Vishwas Latest & Exclusive Video @ Greater Noida

This is really amazing. This is The second performance of Dr. Kumar Vishwas in Delhi NCR in Greater Noida on 12th March 2010. He made the whole crowd Clapping & Cheering with his witty & poetic attitude. Really very Inspiring Event. It''s a marvelous pleasure to hear Dr. kumar Vishwas Live. Seriously,

With Love,

Kumar Hindustani

Friday 26 February, 2010

what is objective of our life? THINK



...हम किस गली जा रहे हैं.........???

कभी-कभी ऐसा होता है कि आप के मन में एक सवाल कई बार आता है। लेकिन आप चाह कर भी उसे समझ नहीं पाते। शब्द नहीं दे पाते। सवाल का हल नहीं ढूंढ़ पाते। परेशान हो जाते हैं। जब सवाल के बारे में सोचने लगते हैं तो सवाल दिमाग से फुर्र्र हो चुका होता है। ऐसा एक बार नहीं कई बार होता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं कभी एक तरफा नहीं सोच पाता। जब तक कोई निर्णय नहीं लेता जब तक सिक्के के दोनों पहलू न समझ लूं।
कभी-कभी यह स्थिति काफी चिंताजनक और परेशानी खड़ी करने वाली होती है। लेकिन करूं भी तो क्या इस चिंता से नहीं उबर पाता और जैसा मेरा रवैय्या है उसके मुताबिक कई बार नहीं तो कम से कम एक बार आप भी ऐसी ही स्थिति से दो चार हुए जरूर होंगे।
दरअसल सवाल बिल्कुल वाजिब, वैयक्तिक, विस्तृत, विश्लेषणात्मक और वैश्विक है। इसलिए इसका हल भी साधारण नहीं हो सकता। हम किस गली जा रहे हैं... शायद कुछ माह पहले ही यह गाना किसी के मोबाइल पर बजता सुना। उसके कुछ दिन बाद मेरी मैडम ने भी यह गाना अपने मोबाइल पर सेव कर लिया और अक्सर सुना करती हैं। तो यह गाना अब तक मेरे कानों में कई बार गूंज चुका है। एक बार गाने के कुछ बोलों पर गौर करते हैं और फिर सोचते हैं अपने सवाल के बारे में।
तो गाना कुछ यूं है-
हम किस गली जा रहे हैं, हम किस गली जा रहे हैं।
अपना कोई ठिकाना नहीं, अपना कोई ठिकाना नहीं।
अरमानों के अंजुमन में, बेसुध है अपनी लगन में।
अपना कोई फसाना नहीं, अपना कोई फसाना नहीं।...
खैर गाना तो लंबा है लेकिन मुझे सिर्फ इसके मुखड़े से मतलब है। गाने के बोलों पर गौर करें तो हम किस रास्ते पर चल रहे हैं, हमारी मंजिल क्या है, हमें कहां जाकर थमना है, किस लक्ष्य को पाना है और क्या हासिल करना है। हमें कुछ भी नहीं पता है। हजारों ख्वाहिशों-अरमानों के इस आभासी बाग-बगीचे में होने के बावजूद हम बेसुध हैं उसी उधेड़बुन में कि हमें यह पाना है, यह बटोरना है, यह हासिल करना है, फलां को नीचा दिखाना है और भी न जाने क्या क्या? लेकिन हमारा कोई फलसफा नहीं है, कुछ भी धरातल पर नहीं है।
पर गौर करने वाली बात है कि इस हकीकत से हम कभी रूबरू ही नहीं हो सके। आज मैंने सोचा कि क्यूं न खुदी से रूबरू होया जाए। क्यूं न यह जानूं कि आखिर मेरी मंजिल क्या है? आखिर मुझे क्या पाना है? आखिर मैं क्यूं इस अंधी दुनिया में भागता जा रहा हूं? क्या हासिल करके खुश होना चाहता हूं? क्यूं दिन-रात एक करके कामयाबी पाने की ललक खत्म होने का नाम नहीं होती? क्यों जब मेरी काबीलियत को दरनिकार कर किसी अयोग्य को आगे बढ़ाया जाता है तो मुझे ईष्र्या सी होने लगती है? आखिर क्यों मैं समस्या आने पर आपा खो बैठता हूं, टूटने लगता हूं, हारा हुआ महसूस करने लगता हूं? आखिर वो क्या चीज है जिसे पाने के बाद मेरी लालसा खत्म हो जाएगी? मेरी जिंदगी के सफर का वो पड़ाव कब आएगा? न जाने कितने सवाल मेरे सामने आंधी में उड़ते धूल के कणों की तरह खड़े होते चले गए। मैं लाख चाहने के बाद भी इन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूं। हल नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता हूं कि इसका आखिर उत्तर क्या है।
लेकिन क्या आपने सोचा है कि आखिर आप भी कौन सी अंधी दौड़ में शामिल हैं, क्या पाना चाहते हैं, जिंदगानी का मकसद क्या है, क्या पाकर संतुष्टि हासिल करेंगे? मुझे पक्का यकीन है कि आपका जवाब भी यही होगा कि यार आज तक इस बारे में सोचा नहीं। कुछ यह भी कह सकते हैं कि क्यों बेफिजूल की बातों में अपना वक्त बर्बाद करूं। या फिर कुछ यह भी सोच सकते हैं कि कोई सिरफिरा है जो बेकार ही सवाल कर रहा है। खुद भी परेशान है और मुझे भी परेशान कर रहा है।
लेकिन मेरे भाई हकीकत से दूर मत भागो। बैठो। सोचो। फिर सोचो। ध्यान लगाओ कि आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या हासिल करोगे? हासिल कर लिया तो फिर क्या करोगे? उसके बाद क्या पाने की ललक पैदा हो जाएगी?
सवाल वाकई हैरत में डालने वाला है। सुबह से लेकर रात तक अंधी दौड़ में शामिल हम सब पता नहीं किसे संतुष्ट करना चाहते हैं। खुद को या फिर समाज को या फिर परिवार को। लेकिन सवाल फिर वहीं पीछे छूट जाता है कि यदि हम सभी को संतुष्ट करने के पीछे दौड़ते ही रहे तो सभी पीछे छूट जाएंगे और आगे पहुंचकर संतोष पाने वाले मिल नहीं सकेंगे क्योंकि वो तो बिछड़ चुके हैं।
इसलिए जरूरी है कि आत्मचिंतन किया जाए। सोचा जाए कि हमारी खुदी का मकसद क्या है? विचार किया जाए कि दूसरों को खुशी देने के लिए पहले खुद खुश होना जरूरी है या फिर दुखी होकर खुशी दी जा सकती है। पहचान की जाए कि आखिर वो कौन सा अंधा रास्ता है जिसपर हम तेजी से दौड़े जा रहे हैं लेकिन मंजिल का नामोंनिशां तक नहीं दिखता।
अब बात करते हैं अपने पत्रकारिता समाज की। पढ़ा है कि सच की लौ को बरकरार रखने के लिए ही पत्रकार पैदा होते और मरते हैं। लोगों को हकीकत से रूबरू कराना ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। कैसे भी करके सच को सामने लाना इनके कंधों पर लदी जिम्मेदारी होती है। लेकिन हम में से कितने इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। जिन संस्थानों के लिए हम काम कर रहे हैं उनका मकसद क्या है? हकीकत को सामने लाने में सफल भी रहे तो संस्थान का मकसद आड़े आ जाता है। और अंत में ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है कि इतनी मेहनत की, पंगा लिया, समय बर्बाद किया लेकिन खबर-सच्चाई दब गई। इसके पीछे क्या वजह है?
सीधी सी सच्चाई यह है कि आज बाजार हावी है। खबर और विज्ञापन सब बाजार के जरिए संचालित किए जा रहे हैं। हकीकत से नहीं बल्कि बिजनेस से मीडिया के ठेकेदारों को सरोकार है। तो ऐसे में क्या हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जवाब है कतई नहीं। बिल्कुल नहीं और कभी नहीं।
क्या किया जाए कि यह बोझ लेकर न जीना पड़े कि चाहते कुछ थे लेकिन मजबूरी में कर कुछ और रहे हैं। बाद में यह सोचकर न पछताना पड़े कि यार ऐसा नहीं करते तो ही ज्यादा अच्छा था। या फिर आईने में अपने अक्स को देखकर नजरें न चुरानी पड़े। इसके लिए हमको अब इस सवाल को फिर से दोहराना पड़ेगा।
हम किस गली जा रहे हैं। इस सवाल का हल खोजना पड़ेगा। जानना पड़ेगा कि आखिर हम क्या चाहते हैं। हम खुद को घुटते हुए देखकर जीने पर यकीन करते हैं या फिर खुली हवा में सांस लेकर बेफिक्री से जीना पसंद है। हमारी मंजिल वो है जिसमें सभी साथ चलकर पहुंचे और खुश हों या फिर जहां हम अकेले पहुंच कर अफसोस जताएं कि
हम खुशी की चाह में जिंदगी से दूर हो गए,
ढूंढऩे चले थे जिंदगी, जिंदगी से दूर हो गए।

कुछ भी करिए लेकिन कुछ यूं करिए कि जीवन का सफर तय करने के बाद कभी अफसोस न हो कि उस वक्त ये न किया होता तो आज यह दुख न उठाना पड़ता। आपका तो पता नहीं लेकिन आज मुझे मेरे सवाल का शायद 80 फीसदी जवाब मिल गया है।

आपका साथी

कुमार हिंदुस्तानी

Tuesday 23 February, 2010

U can't runaway from TRUTH.

...आंखें मूंद लेने से हकीकत नहीं छिपती मेरे दोस्त।

सभी पाठकों को नमस्कार। जाहिर सी बात है कि अगर आपने इस पोर्टल को खोला है तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया से आपका लगाव होना लाजमी है। कई जगह देखा तमाम लोगों से सुना कि यार भड़ास4मीडिया वाकई लाजवाब है। सभी तारीफ करने वाले मीडियाकर्मी है और इस पोर्टल से उनका अक्सर वास्ता पड़ता है।
लेकिन मैं इस बात से वास्ता नहीं रखता कि भड़ास4मीडिया डॉट कॉम वाकई लाजवाब है। दरअसल हकीकत इससे परे है। इस पोर्टल को लाजवाब कहने वाले मेरे दोस्त-मित्र शायद खुद से ही झूठ बोल रहे हैं। वे क्या आप सभी भी जानते हैं कि यह पोर्टल लाजवाब नहीं है। इस पोर्टल पर ऐसा कुछ भी नहीं रहता जिसकी हम सभी को जानकारी नहीं होती। तो क्या बात है जो हम सभी इससे जुड़े हुए हैं? क्यों हम सभी को इसकी लत लग चुकी है? क्यों हम सभी इंटरनेट मिलते ही जल्द से जल्द भड़ास4मीडिया डॉट कॉम टाइप करके पेज खुलने का इंतजार करते हैं? क्यों हम सभी पेज रिफ्रेश करके देखते रहते हैं कि मीडिया जगत पर अब कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? क्यों हम सभी को इंतजार रहता है कि यार मेरा लेख अब तक पब्लिश क्यों नहीं हुआ? क्यों इतने कम समय में यशवंत, सभी मीडियाकर्मियों (कुछ अपवादों को छोड़कर) के चहेते और शुभचिंतक बन गए हैं?
चलिए मैं आपको बताता हूं कि आखिर इसकी असलियत क्या है? दरअसल आज के मीडिया घरानों को हकीकत से वास्ता नहीं है। खबरों का आज व्यवसायीकरण हो चुका है। जो बाजार में बिक सकता है या फिर जिससे संस्थान को मुनाफा हो सकता है वही खबर चलाई या छापी जाती है। जो भी फायदे का सौदा हो सकता है उसे ही खबर बना दिया जाता है। विज्ञापन की पार्टी है या फिर खबर छापने या चलाने से विज्ञापन नहीं तो मेज के नीचे से कुछ मिलेगा, उसी को वरीयता दी जाती है। इस खेल की टीम के कोच और मैनेजर मीडिया घरानों के मालिक और संपादक बन बैठे हैं।
इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकार और डेस्क पर कार्यरत कर्मियों की फौज भी इस व्यवसायिक खबरों को लाने और छापने/दिखाने के लिए जिम्मेदार हो गई है। मालिक-संपादकों को जो पसंद है सिर्फ वही खबर है यह बात आज हर पत्रकार को भलीभांति मालूम है। आज मीडिया में एक्सक्लूसिव कुछ नहीं रहा। बल्कि मालिक-संपादक को फायदा पहुंचता है और उसने उस खबर से संबंधित बातें कभी नहीं सुनी तो वो समाचार एक्सक्लूसिव की श्रेणी में आ जाता है। मतलब साफ कि आज इन सभी संस्थानों में काम करने वाले छोटे-बड़े मीडियाकर्मी भी चाहे-अनचाहे, ज्ञान-अज्ञान, जानते-भूलते खबरों के व्यवसायीकरण के जिम्मेदार हो गए हैं। असल पत्रकारों को अच्छी तरह पता होता है कि कहां पर क्या वाकई खबर है और क्या नहीं? किसे चैनल-अखबार में स्थान मिलना चाहिए और किसे नहीं? क्या हकीकत है और क्या झूठ है? क्या लिखना/दिखाना चाहिए और क्या नहीं? इन सभी सवालों से हर असल पत्रकार बखूबी वाकिफ है। लेकिन फिर भी नौकरी चलाने के लिए उसे झूठ का चोला ओढ़कर आंख मूंद कर हकीकत पर पर्दा डालना पड़ता है। वो लिखना/दिखाना पड़ता है जिसका खबर या हकीकत से कोई सरोकार नहीं बल्कि ऊपर बैठे लोगों से ताल्लुक है।
इन सबका मतलब क्या निकलता है? चलिए आपके मुंह की बात मैं छीन कर कहता हूं कि आज हम सभी मीडियाकर्मी झूठ में जी रहे हैं। दर्शकों/पाठकों को झूठ परोस रहे हैं। हकीकत से उन्हें वहां लिए जा रहे हैं जहां मीडिया घराने का स्वार्थ जुड़ा हुआ है। यानी कि आज खुद पत्रकारों को हकीकत देखना ऐसा लगता है कि जैसे कोई इब्नेबतूता सामने आ खड़ा हुआ हो। जैसे अमावस्या की काली अंधियारी रात में सूरज अपनी रोशनी और तपिश से एकदम बौखला दे। जैसे समुंदर का पानी आसमान में तैरते हुए हिलोरे मारने लगे। जैसे पैरों तले तपते ज्वालामुखी का लावा हो और उस पर चल रहे हों।
अब फिर से आता हूं वापस उस मुद्दे पर कि क्या यह पोर्टल वाकई लाजवाब है। इसका जवाब अब तक शायद आप सभी को मिल चुका होगा। लेकिन शब्दों में बयां करना जरूरी है। दरअसल आज सभी मीडियाकर्मी हकीकत से कोसों दूर हो चुके हैं। ऐसे में भड़ास4मीडिया लोगों को नंगी हकीकत, कड़ुवा सच, पूर्ण सत्य, बेबाक बयानी, कलम की पैनी और धारदार ताकत, जमींर में कईयों फीट दब चुकी चिंगारी को सामने लाता है। जो आज मैं और मेरे पत्रकार साथी नहीं लिख/दिखा सकते उसे निडर होकर लिखता है। जो देखकर भी मुंह नहीं खोल सकते उसे पूरी दुनिया के सामने नंगा कर देता है। नौकरी जाने के डर से जो हकीकत दबा देते हैं उसे डंके की चोट पर दिखाता है।
ऐसे में हम सभी को अब सच देखने पर आश्चर्य होने लगा है। कहीं पर हकीकत पढ़ते/देखते ही शरीर का रोयां खड़ा हो जाता है कि यार इसने कैसे कर दिया। यही वो वजह है जिसने इस पोर्टल को लाजवाब बनाया है।
लेकिन अफसोस होता है कि अभी भी न जाने कितने मीडिया घराने हैं जो आंखें बंद करके यह सोच रहे हैं कि अब हकीकत कोई नहीं देख सकता। लगभग देश के सभी दिग्गज मीडिया घरानों में आज भड़ास4मीडिया डॉट कॉम को ब्लॉक कर दिया गया है। कोई भी कर्मचारी अपने कंप्यूटर पर इसे नहीं देख सकता। मीडिया घरानों के ठेकेदारों को डर है कि कहीं इससे उनके सिपहसलार कहीं बगावत न कर दें। कहीं मीडिया के अंदर भी आंदोलन का बिगुल न बज जाए। कहीं उनके संस्थान के उच्चतम प्रबंधकीय विवाद की खबर उनके सबसे नीचे काम करने वाले कर्मियों को न लग जाए। मालिक-संपादक यह सोचते हैं कि आंख बंद कर लो, सच छिप जाएगा, वेबसाइट को ब्लॉक कर दो कोई नहीं देखेगा। लेकिन बंद आंखों के अंदर मन तो खुला हुआ है। वे भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि ऑफिस में न सही तो घर में, दोस्त के यहां, मोबाइल पर या लैपटॉप पर वे सभी कर्मी रोजाना न सही तो हर दूसरे दिन भड़ास4मीडिया देखते जरूर हैं। वेबसाइट पर किसी भी नई खबर की जानकारी इंटरनेट के जरिए न सही तो उनके किसी साथी के द्वारा फोन पर कॉल-एसएमएस के जरिए मिल जाती है।
तो मुर्दा हो चुकी गैरत के मंद (बेगैरतमंद) मालिक-संपादकों भले ही आंखें बंद कर लो, भले ही वेबसाइट पर बैन लगा दो, भले ही वेबसाइट को ब्लॉक कर दो। लेकिन हकीकत तुम्हारे बाप की बपौती नहीं जो तुम डकार जाओगे और किसी को खबर भी नहीं होगी। सच नंगा होता है और नंगा किसी से डरता नहीं। इसलिए हकीकत से वास्ता रखो। भले ही मीडिया को व्यवसाय बनाकर मोटी कमाई कर रहे हो लेकिन अपने कर्मचारियों को तो हकीकत से हमेशा रूबरू होने का पाठ तो पढ़ा ही सकते हो।

कुमार हिंदुस्तानी



Monday 15 February, 2010

एजुकेशनल क्राइटेरिया नो बार, मीडिया प्रोफेशन ऐट पार...

इंजीनियर बनने के लिए बीटेक या एमटेक या बीई आदि, डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस या एमडी या एमएस आदि, चाटर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए भी विशेष अखिल भारतीय स्तर का पाठ्यक्रम, आईएएस बनने के लिए देश भर के लाखों प्रतिभावान युवाओं की बुद्धिमत्ता के सामने अपनी अक्ल को सर्वश्रेष्ठ साबित करना, मैनेजर बनने के लिए एमबीए या पीजीडीएम, टीचर बनने के लिए पीएचडी या बीएड...न्यूनतम शैक्षिक सीमाएं है। लेकिन मीडिया के लिए कोई भी और कुछ भी चलेगा वाला हिसाब चल रहा है।

चाहे बड़े मीडिया घराने हों या फिर छोटा, शिक्षा के मामले में यहां सब कुछ चलता है। मसलन आपके पास तीन माह का सर्टीफिकेट हैं या फिर तीन साल की बैचलर डिग्री या फिर दो साल की मास्टर डिग्री, सभी कागजी पैमाने पर एक औकात के एक बराबर हैं। आपका जुगाड़ हो या अद्भुत प्रतिभा हो लेकिन डिग्री-डिप्लोमा-सर्टिफिकेट के मामले में मीडिया का कोई जवाब नहीं।

वैसे तो मीडिया हाउसों में सैलरी स्ट्रक्चर भी बड़ा बेतरतीब और अजीब होता है। एक ही ग्रेड के दो कर्मचारियों की तनख्वाह में भी कम-ज्यादा और कभी तो बहुत ज्यादा अंतर होता है। लेकिन प्रतिभा और अनुभव का उस वक्त सर्वाधिक हनन होता है जिस वक्त एक तीन माह का सर्टीफिकेटधारी साधारण स्नातक बॉस बनकर दो वर्ष की मास्टर डिग्रीधारी कनिष्ठ पर हुकुम चलाता है। कम उम्र के साथ कम शिक्षा, बौद्धिक स्तर में उस दो वर्षीय परास्नातक से कितना आगे होगी, बताने की जरूरत नहीं। लेकिन संपादक को पसंद आया और उन्होंने कम पढ़े लिखे को बॉस बना दिया। अब झेलो।

यह स्थिति केवल एक संस्थान की नहीं बल्कि आज देश के सर्वश्रेष्ठ से लेकर आखिरी नंबर तक के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हाउसेज में शिक्षा के साथ यह भद्दा मजाक किया जा रहा है। ज्ञान, प्रतिभा, उम्र, अनुभव आदि विशेषणों को दरनिकार कर अपने सगे-संबंधियों, जानकारों या फिर केवल दयापात्रों को उनके ऊपर हुकुम चलाने की कमान सौंपी जा रही है। देश के सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग का दर्जा पाने वाली मीडिया में शिक्षा के साथ स्वयं इतना अन्याय सहन नहीं होता।

इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में स्थिति और ज्यादा बुरी है। बिना किसी सर्टीफिकेट, डिप्लोमा या डिग्री के 16-18 साल की लड़कियां चैनलों में दिन भर इधर-उधर कूदती फांदती देखी जा सकती हैं। इनके पास ज्ञान और शिक्षा के अलावा सबकुछ है। चैनलों में इन्हें रखने का मकसद ऑफिस के माहौल को जीवंत रखना, बॉस को आई टॉनिक देना, गेस्ट को वेल्कम करना वगैरह-वगैरह होता है। प्रिंट मीडिया की लाइन में इन्हें आई-कैंडी के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन चैनलों में इन लड़कियों की तनख्वाह और पद का नाम सुनकर अच्छे-अच्छे और पुराने मीडिया के धुरंधर भी पानी भरते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि चैनल को इनसे क्या फायदे मिलते हैं।

यहां पर चैनल का जिक्र करने का इरादा केवल इतना भर है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में ज्ञानवान, होनहार, खूबसूरत और काबिल छात्राएं-युवतियां-लड़कियां भी पत्रकारिता, जनसंचार जैसे डिग्री कोर्स कर रही हैं। उनके पास न केवल शक्ल बल्कि अक्ल भी है। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता एवं जन संचार जैसे विषय पढऩे वाले छात्रों के पास भी हुनर और अक्ल की कमी नहीं है। लेकिन डिग्री पाने के बाद बिना किसी जुगाड़ और गॉड फादर के वे भी अपनी डिग्री को कोसते हैं।

पिछले कुछ सालों में मैनें स्वयं करीब डेढ़ सौ युवक-युवतियों से मीडिया का हाल जाना। पता चला कि उनका कोई चैनल-अखबार में काम करने वाला बताता है कि- यार तुम्हारे पास सबकुछ है लेकिन लिंक नहीं है। वर्ना देखो...फलां केवल इंटर पास है, न हिंदी आती है और अंग्रेजी भी मासाल्लाह है। लेकिन ट्रेनी असिस्टेंट प्रोड्यूसर या सब एडीटर बना हुआ है। जुगाड़ से काम करवा दिया गया है। जल्द ही डिप्लोमा भी कर लेगा। अगर तुम्हें भी कहीं सेट होना है तो कुछ जुगाड़ तलाशो।

तो भईय्या यह स्थिति हो गई है अपनी मीडिया की। मीडिया में काम करने वाले खुद इस हकीकत से रूबरू हैं। कम शिक्षा और अनुभव वाले आज तर्जुबाधारी और कागजों की डिग्री का ढेर लगाए प्रतिभाशाली लोगों पर राज कर रहे हैं, उन्हें हुकुम दे रहे हैं, बता रहे हैं कि बेटा अब मीडिया पत्रकारिता नहीं रही, बल्कि माई आईडिया हो गई है। इससे वो अभिषेक बच्चन का डायलॉग याद आ गया---(व्हाट एन आईडिया सर जी, एन आईडिया कैन चेंज योर लाइफ)। लेकिन मीडिया में वरिष्ठों का माई आईडिया उनके करीबियों का मिरैकल आईडिया बन गया और मीडिया के माई आईकन बन गए। जबकि पढ़ें फारसी बेचें तेल वाली कहावत मीडिया शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं पर चरितार्थ हो गई।

....अंत में मेरा मीडिया घरानों के मालिकों, संपादकों, प्रोड्यूसर्स जैसे समस्त सम्मानित और काबिल लोगों से आग्रह है कि मीडिया को लोगों की नजरों में गिरने से बचाने के लिए काबिल लोगों की फौज भर्ती करें। इसके लिए पारदर्शी दाखिला प्रणाली बनाएं, परीक्षाएं आयोजित करें, साक्षात्कार लें, जांचें, देखें फिर योग्यता, अनुभव और प्रतिभानुसार उसे पद, वेतन और सुविधाएं मुहैय्या कराएं। प्रतिभा का हनन, सक्षम और समर्थ व्यक्तियों का नैतिक पतन करना है। इसलिए खुद अपने हाथों से इस सम्मानित क्षेत्र को गर्त में न ढकेलें। आने वाली पीढ़ी को एक स्वतंत्र, बुलंद, निरपेक्ष और लक्ष्याधारित मीडिया सौंपनें के लिए अभी से यह सकारात्मक परिवर्तन शुरु करना होगा।

Wednesday 10 February, 2010

जोश सच का गाए जा, कदम-कदम बढ़ाए जा

घंटी बजाओ तो पता चलेगा जोश सच का

आगे बढऩे की ललक होना अच्छा है और कुछ इसी राह पर शायद अमर उजाला चल निकला है। देर से ही सही लेकिन एक अच्छी शुरुआत के लिए अमर उजाला को धन्यवाद व्यक्त करता हूं। किसी बेहतरीन मकसद, लक्ष्य, सोच को सही साबित करने के उद्देश्य से प्रारंभ हुआ यह सफर अब कहां तक चलेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
जरूरी यह जानना है कि अमर उजाला अब कॉरपोरेट कल्चर को आत्मसात करने लगा है। तभी तो दो साल पहले शुरु हुए अमर उजाला के कॉरपोरेटाईजेशन के बाद केवल केबिन में कॉरपोरेट मीटिंग्स, सेमीनार, वर्कशॉप आदि होते थे। लेकिन केबिन की बत्ती बुझने और कर्मियों के बाहर निकलने के साथ ही दिमाग की बत्ती भी गुल हो जाती थी। कॉरपोरेट कल्चर केवल काल्पनिक कथानक का काम करता था।
अब लगता है अमर उजाला एक नए उजाले के साथ तैयार हो रहा है। कॉरपोरेट होने के बाद से अब वो इसका असली मतलब समझना शुरु कर रहा है। जिसका ताजा उदाहरण आजकल अमर उजाला कर्मचारियों के मोबाइल फोन को मिलाने पर सभी को पता चल रहा है। बात हो रही है अखबार कर्मियों के मोबाइल की नई कॉरपोरेट कॉलर ट्यून अमर उजाला की।

'अमर उजाला,
जोश सच का।।
रात हो या सहर,
ना रुकेगा सफर।
मीलों हमें चलना है
ये वक्त बदलना है,
ये वक्त बदलना है
ये वक्त बदलना है....
अमर उजाला,
जोश सच का।।Ó


जैसे ही आप अपने किसी भी अमर उजाला कर्मचारी मित्र का मोबाइल फोन घनघनाएंगे, उक्त कॉलर ट्यून बेहद ही जोशीली आवाज में साफ सुनाई देगी। यह कॉलर ट्यून अमर उजाला द्वारा ही रचित है और इसे गायकों ने बुलंद आवाज दे कर अल्फाजों को यथार्थ बनाने पर जोर डाला है। लेकिन अगर एक-एक अल्फाज पर गौर करें तो देखिए क्या पता चलता है।

'अमर उजाला (काफी पहले से ही सबको पता है, लेकिन कोई भी उजाला अमर नहीं हो सकता, उजाले-अंधेरे का एक अनवरत चक्र है।)Ó
'जोश सच का (यह स्लोगन ताकि सच जिंदा रहे स्लोगन की हत्या करने के बाद दिया गया। यानी सच मर गया लेकिन झूठे जोश को सच कहने में क्या जाता है? )Ó
'रात हो या सहर (काली अंधियारी रात हो या फिर उजाला, केवल जोश दिखेगा, होश के बारे में अभी नहीं पता)Ó
'न रुकेगा यह सफर (अब यह कारवां आगे बढ़ निकला है, जो किसी भी कीमत पर रुकने वाला नहीं)Ó
'मीलों हमें चलना है (यानी, कारवां इतना बढऩे के बाद भी वहीं खड़ा हुआ है। अभी भी न जाने की कितनी दूरी बाकी है जिस पर चलना है। या यूं कहें कि अब सफर की असली शुरुआत हुई है।)Ó
'ये वक्त बदलना है (सबको पता है कि समय को कोई नहीं बदल सकता। यह सदियों से चला आ रहा एक सार्वभौमिक सत्य है कि समय खुद ही आगे चलता और बदलता रहता है। लेकिन अब अमर उजाला ने यह जिम्मेदारी उठाई है। देखना है कि अमर उजाला वक्त बदलता है या फिर आने वाला वक्त अमर उजाला को बदलता है)Ó

एक बात साफ कर दूं कि यहां मैं किसी निजी स्वार्थवश अमर उजाला की बढ़ाई या बुराई नहीं कर रहा हूं। वरन, सभी को उस हकीकत से दो-चार करने की कोशिश कर रहा हूं जो अमर उजाला के बारे में शायद सभी को नहीं पता।
कौव्वा चले हंस की चाल, नुमा मुहावरे पर आंख मूंद विश्वास करते हुए अमर उजाला चला आया है। शशि शेखर के वक्त में समूह ने काफी तरक्की की। लेकिन वो तरक्की वास्तविक न होकर केवल एक नकल भर थी। अमर उजाला ने विश्व के नंबर एक हिंदी दैनिक अखबार दैनिक जागरण की नकल करना प्रारंभ किया और तरक्की के सोपान पाता चला गया।
लेकिन हकीकत में नकल करने वाला नकली ही रह जाता है। वो कभी खुद से एक मिसाल नहीं खड़ी कर सकता। वो जो भी करता है उसमें नकल की बू साफ-साफ सुंघाई देती है। पहले कंटेंट की प्रमुखता से नकल करने के कुछ वक्त बाद खुद को पुन: नकली साबित करने के लिए कॉरपोरेटाइजेशन में खुद को ढालने लगा अमर उजाला। लेकिन कॉरपोरेट मीटिंग्स में शामिल होने वाले 90 फीसदी अमर उजाला कर्मियों को शायद ही पता होता कि दरअसल यह कॉरपोरेट क्या बला है? 'अधिकांश इसे कार से उतर कर कारपेट वाले केबिन में होने वाली फालतू मीटिंग भर ही समझते आए हैं।Ó
सालों से अमर उजाला में काम करते आए असल देशी कर्मचारियों को एकदम से कॉरपोरेट का सीरप पिलाने के बाद से अमर उजाला ने फिर नकल की। अबकी बार नकल थी उसी नंबर वन अखबार के टैबलॉयड आई-नेक्स्ट की। सही समझे- कॉम्पैक्ट लांच करने के पीछे अमर उजाला की यही मंशा थी कि कहीं जागरण बड़े-छोटे अखबार की कहानी सुनाकर पूरे बाजार में कब्जा न कर ले। इसलिए फटाफट नकल की, आधी-अधूरी तैयारी से झटपट कॉम्पैक्ट का प्रकाशन शुरु कर दिया।
उधर जागरण सफलता की एक से एक नई इबारतें लिखता रहा। इसी कड़ी में उसने विश्वप्रसिद्ध इंटरनेट सर्च इंजन याहू के साथ गठजोड़ करके अपना ई-संस्करण सर्वश्रेष्ठ कर लिया। लेकिन बेचारा अमर उजाला अभी तक उस तकनीकी को नहीं समा पाया। और आज भी ऑनलाइन विशेषज्ञों की टीम अमर उजाला की वेबसाइट निर्माण में जुटी है। नकल का कितना दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सका है कि जहां जागरण की एक वेबसाइट है, वहीं नकल के चक्कर में अमर उजाला को तीन वेबसाइट बनानी पड़ गईं। लेकिन सफलता अभी भी नहीं मिल पाई है। रोज सिस्टम हैंग रहता है, वेबसाइट अपडेट नहीं हो पाती जैसी शिकायतें सामने आना आम बात है।
मेरा न केवल अमर उजाला बल्कि उन सभी विकासशील मीडिया घरानों के संपादकों, मालिकों से निवेदन है कि नकल करने वाला हमेशा नकली ही रहता है। इसलिए खुद की अकल पर भरोसा करें। हमेशा अपने कर्मचारियों पर भरोसा जताकर उन्हें कुछ ऐसा नया इजाद करने के लिए कहें जो बाजार में एक मानक बन जाए। कर्मचारियों की प्रतिभा का सही आंकलन कर प्रयोगात्मक रुख भी अपनाएं। सफलता के लिए केवल सही मौके पर सही शुरुआत करने भर की देरी होती है। इसलिए पंरपराओं की दीवारें तोड़कर और दूसरों की नकल छोड़कर खुद से एक ऐसी नई दास्तान बनाएं जो औरों के लिए भी एक मिसाल बन उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करे।

प्यार: देखो, बोलो और सुनो


लव मंकी गांधीगिरी से फैला रहे मोहब्बत की खुशबू

गांधी जी ने कहा था बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। जिन्हें मुंह, आंख और कानों पर हाथ रखे तीन बंदरों को देखकर साफ समझा जा सकता है। वक्त की नब्ज को टटोलते हुए आपसी सौहार्द बढ़ाने और प्रगति के लिए यह संदेश काफी कारगर साबित हुआ। लेकिन अब मशीननुमा बन चुके इंसानों में नफरत तेजी से बढ़ती जा रही है। आपसी रिश्तों में तकरार बढऩे के साथ ही तनाव का स्तर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में यदि एक छोटा और बहुत ही गंभीर संदेश आपको बेहद ही लुभावने और मजेदार तरीके से मिले, तो उसे देखकर एक बारगी मन में प्यार जरूर पैदा होगा।

चार दिन की जिंदगानी में बढ़ती नफरत की दीवार को अब तीन बंदरों ने गांधीगिरी से ढहाने की कमान संभाली है। बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो वाला गांधी जी का संदेश बदलने का वक्त आ चुका है। अब प्यार ही देखो, बोलो और सुनो का संदेश देते हुए लव मंकी ट्रिपलेट्स बाजार से लोगों के दिलों और घरों में पैठ बनाना चालू कर चुके हैं। सी लव, हीयर लव, स्पीक लव का संदेश देते हुए यह खूबसूरत बंदरों की तिकड़ी इस वैलेंटाइन वीक में मोहब्बत की खुशबू हर ओर फैला रही है।

शायद यही सोचते हुए ग्रीटिंग्स एवं उपहार संबंधी उत्पादों की अग्रणी कंपनी आर्चीज ने 'लव मंकी ट्रिपलेट्स की बेहद ही संवेदनशील और कारगर रेंज लांच की है। 249 रुपये कीमत के यह लव मंकी बेहद ही आसान और कारगर तरीके से मोहब्बत का संदेश हर आम और खास तक पहुंचाने में मददगार हो रहे हैं।

'लव मंकी ट्रिपलेट्स
-तीन आकर्षक बंदर एक लाल रंग की बेंच पर साथ में बैठे
-हर बंदर करीब ढाई इंच लंबा और डेढ़ इंच चौड़ा

सी लव।
-पहला आंखों से हाथ लगाकर कुछ देखने की कोशिश कर रहा

हियर लव।
-दूसरा कानों पर हाथ लगाकर कुछ सुनने की कोशिश कर रहा है।

स्पीक लव
तीसरा मुंह में हाथ लगाकर कुछ बोलने की कोशिश कर रहा है।