...हम किस गली जा रहे हैं.........???
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप के मन में एक सवाल कई बार आता है। लेकिन आप चाह कर भी उसे समझ नहीं पाते। शब्द नहीं दे पाते। सवाल का हल नहीं ढूंढ़ पाते। परेशान हो जाते हैं। जब सवाल के बारे में सोचने लगते हैं तो सवाल दिमाग से फुर्र्र हो चुका होता है। ऐसा एक बार नहीं कई बार होता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं कभी एक तरफा नहीं सोच पाता। जब तक कोई निर्णय नहीं लेता जब तक सिक्के के दोनों पहलू न समझ लूं।
कभी-कभी यह स्थिति काफी चिंताजनक और परेशानी खड़ी करने वाली होती है। लेकिन करूं भी तो क्या इस चिंता से नहीं उबर पाता और जैसा मेरा रवैय्या है उसके मुताबिक कई बार नहीं तो कम से कम एक बार आप भी ऐसी ही स्थिति से दो चार हुए जरूर होंगे।
दरअसल सवाल बिल्कुल वाजिब, वैयक्तिक, विस्तृत, विश्लेषणात्मक और वैश्विक है। इसलिए इसका हल भी साधारण नहीं हो सकता। हम किस गली जा रहे हैं... शायद कुछ माह पहले ही यह गाना किसी के मोबाइल पर बजता सुना। उसके कुछ दिन बाद मेरी मैडम ने भी यह गाना अपने मोबाइल पर सेव कर लिया और अक्सर सुना करती हैं। तो यह गाना अब तक मेरे कानों में कई बार गूंज चुका है। एक बार गाने के कुछ बोलों पर गौर करते हैं और फिर सोचते हैं अपने सवाल के बारे में।
तो गाना कुछ यूं है-
हम किस गली जा रहे हैं, हम किस गली जा रहे हैं।
अपना कोई ठिकाना नहीं, अपना कोई ठिकाना नहीं।
अरमानों के अंजुमन में, बेसुध है अपनी लगन में।
अपना कोई फसाना नहीं, अपना कोई फसाना नहीं।...
खैर गाना तो लंबा है लेकिन मुझे सिर्फ इसके मुखड़े से मतलब है। गाने के बोलों पर गौर करें तो हम किस रास्ते पर चल रहे हैं, हमारी मंजिल क्या है, हमें कहां जाकर थमना है, किस लक्ष्य को पाना है और क्या हासिल करना है। हमें कुछ भी नहीं पता है। हजारों ख्वाहिशों-अरमानों के इस आभासी बाग-बगीचे में होने के बावजूद हम बेसुध हैं उसी उधेड़बुन में कि हमें यह पाना है, यह बटोरना है, यह हासिल करना है, फलां को नीचा दिखाना है और भी न जाने क्या क्या? लेकिन हमारा कोई फलसफा नहीं है, कुछ भी धरातल पर नहीं है।
पर गौर करने वाली बात है कि इस हकीकत से हम कभी रूबरू ही नहीं हो सके। आज मैंने सोचा कि क्यूं न खुदी से रूबरू होया जाए। क्यूं न यह जानूं कि आखिर मेरी मंजिल क्या है? आखिर मुझे क्या पाना है? आखिर मैं क्यूं इस अंधी दुनिया में भागता जा रहा हूं? क्या हासिल करके खुश होना चाहता हूं? क्यूं दिन-रात एक करके कामयाबी पाने की ललक खत्म होने का नाम नहीं होती? क्यों जब मेरी काबीलियत को दरनिकार कर किसी अयोग्य को आगे बढ़ाया जाता है तो मुझे ईष्र्या सी होने लगती है? आखिर क्यों मैं समस्या आने पर आपा खो बैठता हूं, टूटने लगता हूं, हारा हुआ महसूस करने लगता हूं? आखिर वो क्या चीज है जिसे पाने के बाद मेरी लालसा खत्म हो जाएगी? मेरी जिंदगी के सफर का वो पड़ाव कब आएगा? न जाने कितने सवाल मेरे सामने आंधी में उड़ते धूल के कणों की तरह खड़े होते चले गए। मैं लाख चाहने के बाद भी इन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूं। हल नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता हूं कि इसका आखिर उत्तर क्या है।
लेकिन क्या आपने सोचा है कि आखिर आप भी कौन सी अंधी दौड़ में शामिल हैं, क्या पाना चाहते हैं, जिंदगानी का मकसद क्या है, क्या पाकर संतुष्टि हासिल करेंगे? मुझे पक्का यकीन है कि आपका जवाब भी यही होगा कि यार आज तक इस बारे में सोचा नहीं। कुछ यह भी कह सकते हैं कि क्यों बेफिजूल की बातों में अपना वक्त बर्बाद करूं। या फिर कुछ यह भी सोच सकते हैं कि कोई सिरफिरा है जो बेकार ही सवाल कर रहा है। खुद भी परेशान है और मुझे भी परेशान कर रहा है।
लेकिन मेरे भाई हकीकत से दूर मत भागो। बैठो। सोचो। फिर सोचो। ध्यान लगाओ कि आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या हासिल करोगे? हासिल कर लिया तो फिर क्या करोगे? उसके बाद क्या पाने की ललक पैदा हो जाएगी?
सवाल वाकई हैरत में डालने वाला है। सुबह से लेकर रात तक अंधी दौड़ में शामिल हम सब पता नहीं किसे संतुष्ट करना चाहते हैं। खुद को या फिर समाज को या फिर परिवार को। लेकिन सवाल फिर वहीं पीछे छूट जाता है कि यदि हम सभी को संतुष्ट करने के पीछे दौड़ते ही रहे तो सभी पीछे छूट जाएंगे और आगे पहुंचकर संतोष पाने वाले मिल नहीं सकेंगे क्योंकि वो तो बिछड़ चुके हैं।
इसलिए जरूरी है कि आत्मचिंतन किया जाए। सोचा जाए कि हमारी खुदी का मकसद क्या है? विचार किया जाए कि दूसरों को खुशी देने के लिए पहले खुद खुश होना जरूरी है या फिर दुखी होकर खुशी दी जा सकती है। पहचान की जाए कि आखिर वो कौन सा अंधा रास्ता है जिसपर हम तेजी से दौड़े जा रहे हैं लेकिन मंजिल का नामोंनिशां तक नहीं दिखता।
अब बात करते हैं अपने पत्रकारिता समाज की। पढ़ा है कि सच की लौ को बरकरार रखने के लिए ही पत्रकार पैदा होते और मरते हैं। लोगों को हकीकत से रूबरू कराना ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। कैसे भी करके सच को सामने लाना इनके कंधों पर लदी जिम्मेदारी होती है। लेकिन हम में से कितने इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। जिन संस्थानों के लिए हम काम कर रहे हैं उनका मकसद क्या है? हकीकत को सामने लाने में सफल भी रहे तो संस्थान का मकसद आड़े आ जाता है। और अंत में ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है कि इतनी मेहनत की, पंगा लिया, समय बर्बाद किया लेकिन खबर-सच्चाई दब गई। इसके पीछे क्या वजह है?
सीधी सी सच्चाई यह है कि आज बाजार हावी है। खबर और विज्ञापन सब बाजार के जरिए संचालित किए जा रहे हैं। हकीकत से नहीं बल्कि बिजनेस से मीडिया के ठेकेदारों को सरोकार है। तो ऐसे में क्या हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जवाब है कतई नहीं। बिल्कुल नहीं और कभी नहीं।
क्या किया जाए कि यह बोझ लेकर न जीना पड़े कि चाहते कुछ थे लेकिन मजबूरी में कर कुछ और रहे हैं। बाद में यह सोचकर न पछताना पड़े कि यार ऐसा नहीं करते तो ही ज्यादा अच्छा था। या फिर आईने में अपने अक्स को देखकर नजरें न चुरानी पड़े। इसके लिए हमको अब इस सवाल को फिर से दोहराना पड़ेगा।
हम किस गली जा रहे हैं। इस सवाल का हल खोजना पड़ेगा। जानना पड़ेगा कि आखिर हम क्या चाहते हैं। हम खुद को घुटते हुए देखकर जीने पर यकीन करते हैं या फिर खुली हवा में सांस लेकर बेफिक्री से जीना पसंद है। हमारी मंजिल वो है जिसमें सभी साथ चलकर पहुंचे और खुश हों या फिर जहां हम अकेले पहुंच कर अफसोस जताएं कि
हम खुशी की चाह में जिंदगी से दूर हो गए,
ढूंढऩे चले थे जिंदगी, जिंदगी से दूर हो गए।
कुछ भी करिए लेकिन कुछ यूं करिए कि जीवन का सफर तय करने के बाद कभी अफसोस न हो कि उस वक्त ये न किया होता तो आज यह दुख न उठाना पड़ता। आपका तो पता नहीं लेकिन आज मुझे मेरे सवाल का शायद 80 फीसदी जवाब मिल गया है।
आपका साथी
कुमार हिंदुस्तानी
कभी-कभी ऐसा होता है कि आप के मन में एक सवाल कई बार आता है। लेकिन आप चाह कर भी उसे समझ नहीं पाते। शब्द नहीं दे पाते। सवाल का हल नहीं ढूंढ़ पाते। परेशान हो जाते हैं। जब सवाल के बारे में सोचने लगते हैं तो सवाल दिमाग से फुर्र्र हो चुका होता है। ऐसा एक बार नहीं कई बार होता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं कभी एक तरफा नहीं सोच पाता। जब तक कोई निर्णय नहीं लेता जब तक सिक्के के दोनों पहलू न समझ लूं।
कभी-कभी यह स्थिति काफी चिंताजनक और परेशानी खड़ी करने वाली होती है। लेकिन करूं भी तो क्या इस चिंता से नहीं उबर पाता और जैसा मेरा रवैय्या है उसके मुताबिक कई बार नहीं तो कम से कम एक बार आप भी ऐसी ही स्थिति से दो चार हुए जरूर होंगे।
दरअसल सवाल बिल्कुल वाजिब, वैयक्तिक, विस्तृत, विश्लेषणात्मक और वैश्विक है। इसलिए इसका हल भी साधारण नहीं हो सकता। हम किस गली जा रहे हैं... शायद कुछ माह पहले ही यह गाना किसी के मोबाइल पर बजता सुना। उसके कुछ दिन बाद मेरी मैडम ने भी यह गाना अपने मोबाइल पर सेव कर लिया और अक्सर सुना करती हैं। तो यह गाना अब तक मेरे कानों में कई बार गूंज चुका है। एक बार गाने के कुछ बोलों पर गौर करते हैं और फिर सोचते हैं अपने सवाल के बारे में।
तो गाना कुछ यूं है-
हम किस गली जा रहे हैं, हम किस गली जा रहे हैं।
अपना कोई ठिकाना नहीं, अपना कोई ठिकाना नहीं।
अरमानों के अंजुमन में, बेसुध है अपनी लगन में।
अपना कोई फसाना नहीं, अपना कोई फसाना नहीं।...
खैर गाना तो लंबा है लेकिन मुझे सिर्फ इसके मुखड़े से मतलब है। गाने के बोलों पर गौर करें तो हम किस रास्ते पर चल रहे हैं, हमारी मंजिल क्या है, हमें कहां जाकर थमना है, किस लक्ष्य को पाना है और क्या हासिल करना है। हमें कुछ भी नहीं पता है। हजारों ख्वाहिशों-अरमानों के इस आभासी बाग-बगीचे में होने के बावजूद हम बेसुध हैं उसी उधेड़बुन में कि हमें यह पाना है, यह बटोरना है, यह हासिल करना है, फलां को नीचा दिखाना है और भी न जाने क्या क्या? लेकिन हमारा कोई फलसफा नहीं है, कुछ भी धरातल पर नहीं है।
पर गौर करने वाली बात है कि इस हकीकत से हम कभी रूबरू ही नहीं हो सके। आज मैंने सोचा कि क्यूं न खुदी से रूबरू होया जाए। क्यूं न यह जानूं कि आखिर मेरी मंजिल क्या है? आखिर मुझे क्या पाना है? आखिर मैं क्यूं इस अंधी दुनिया में भागता जा रहा हूं? क्या हासिल करके खुश होना चाहता हूं? क्यूं दिन-रात एक करके कामयाबी पाने की ललक खत्म होने का नाम नहीं होती? क्यों जब मेरी काबीलियत को दरनिकार कर किसी अयोग्य को आगे बढ़ाया जाता है तो मुझे ईष्र्या सी होने लगती है? आखिर क्यों मैं समस्या आने पर आपा खो बैठता हूं, टूटने लगता हूं, हारा हुआ महसूस करने लगता हूं? आखिर वो क्या चीज है जिसे पाने के बाद मेरी लालसा खत्म हो जाएगी? मेरी जिंदगी के सफर का वो पड़ाव कब आएगा? न जाने कितने सवाल मेरे सामने आंधी में उड़ते धूल के कणों की तरह खड़े होते चले गए। मैं लाख चाहने के बाद भी इन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूं। हल नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता हूं कि इसका आखिर उत्तर क्या है।
लेकिन क्या आपने सोचा है कि आखिर आप भी कौन सी अंधी दौड़ में शामिल हैं, क्या पाना चाहते हैं, जिंदगानी का मकसद क्या है, क्या पाकर संतुष्टि हासिल करेंगे? मुझे पक्का यकीन है कि आपका जवाब भी यही होगा कि यार आज तक इस बारे में सोचा नहीं। कुछ यह भी कह सकते हैं कि क्यों बेफिजूल की बातों में अपना वक्त बर्बाद करूं। या फिर कुछ यह भी सोच सकते हैं कि कोई सिरफिरा है जो बेकार ही सवाल कर रहा है। खुद भी परेशान है और मुझे भी परेशान कर रहा है।
लेकिन मेरे भाई हकीकत से दूर मत भागो। बैठो। सोचो। फिर सोचो। ध्यान लगाओ कि आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या हासिल करोगे? हासिल कर लिया तो फिर क्या करोगे? उसके बाद क्या पाने की ललक पैदा हो जाएगी?
सवाल वाकई हैरत में डालने वाला है। सुबह से लेकर रात तक अंधी दौड़ में शामिल हम सब पता नहीं किसे संतुष्ट करना चाहते हैं। खुद को या फिर समाज को या फिर परिवार को। लेकिन सवाल फिर वहीं पीछे छूट जाता है कि यदि हम सभी को संतुष्ट करने के पीछे दौड़ते ही रहे तो सभी पीछे छूट जाएंगे और आगे पहुंचकर संतोष पाने वाले मिल नहीं सकेंगे क्योंकि वो तो बिछड़ चुके हैं।
इसलिए जरूरी है कि आत्मचिंतन किया जाए। सोचा जाए कि हमारी खुदी का मकसद क्या है? विचार किया जाए कि दूसरों को खुशी देने के लिए पहले खुद खुश होना जरूरी है या फिर दुखी होकर खुशी दी जा सकती है। पहचान की जाए कि आखिर वो कौन सा अंधा रास्ता है जिसपर हम तेजी से दौड़े जा रहे हैं लेकिन मंजिल का नामोंनिशां तक नहीं दिखता।
अब बात करते हैं अपने पत्रकारिता समाज की। पढ़ा है कि सच की लौ को बरकरार रखने के लिए ही पत्रकार पैदा होते और मरते हैं। लोगों को हकीकत से रूबरू कराना ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। कैसे भी करके सच को सामने लाना इनके कंधों पर लदी जिम्मेदारी होती है। लेकिन हम में से कितने इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। जिन संस्थानों के लिए हम काम कर रहे हैं उनका मकसद क्या है? हकीकत को सामने लाने में सफल भी रहे तो संस्थान का मकसद आड़े आ जाता है। और अंत में ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है कि इतनी मेहनत की, पंगा लिया, समय बर्बाद किया लेकिन खबर-सच्चाई दब गई। इसके पीछे क्या वजह है?
सीधी सी सच्चाई यह है कि आज बाजार हावी है। खबर और विज्ञापन सब बाजार के जरिए संचालित किए जा रहे हैं। हकीकत से नहीं बल्कि बिजनेस से मीडिया के ठेकेदारों को सरोकार है। तो ऐसे में क्या हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जवाब है कतई नहीं। बिल्कुल नहीं और कभी नहीं।
क्या किया जाए कि यह बोझ लेकर न जीना पड़े कि चाहते कुछ थे लेकिन मजबूरी में कर कुछ और रहे हैं। बाद में यह सोचकर न पछताना पड़े कि यार ऐसा नहीं करते तो ही ज्यादा अच्छा था। या फिर आईने में अपने अक्स को देखकर नजरें न चुरानी पड़े। इसके लिए हमको अब इस सवाल को फिर से दोहराना पड़ेगा।
हम किस गली जा रहे हैं। इस सवाल का हल खोजना पड़ेगा। जानना पड़ेगा कि आखिर हम क्या चाहते हैं। हम खुद को घुटते हुए देखकर जीने पर यकीन करते हैं या फिर खुली हवा में सांस लेकर बेफिक्री से जीना पसंद है। हमारी मंजिल वो है जिसमें सभी साथ चलकर पहुंचे और खुश हों या फिर जहां हम अकेले पहुंच कर अफसोस जताएं कि
हम खुशी की चाह में जिंदगी से दूर हो गए,
ढूंढऩे चले थे जिंदगी, जिंदगी से दूर हो गए।
कुछ भी करिए लेकिन कुछ यूं करिए कि जीवन का सफर तय करने के बाद कभी अफसोस न हो कि उस वक्त ये न किया होता तो आज यह दुख न उठाना पड़ता। आपका तो पता नहीं लेकिन आज मुझे मेरे सवाल का शायद 80 फीसदी जवाब मिल गया है।
आपका साथी
कुमार हिंदुस्तानी