Monday 15 February, 2010

एजुकेशनल क्राइटेरिया नो बार, मीडिया प्रोफेशन ऐट पार...

इंजीनियर बनने के लिए बीटेक या एमटेक या बीई आदि, डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस या एमडी या एमएस आदि, चाटर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए भी विशेष अखिल भारतीय स्तर का पाठ्यक्रम, आईएएस बनने के लिए देश भर के लाखों प्रतिभावान युवाओं की बुद्धिमत्ता के सामने अपनी अक्ल को सर्वश्रेष्ठ साबित करना, मैनेजर बनने के लिए एमबीए या पीजीडीएम, टीचर बनने के लिए पीएचडी या बीएड...न्यूनतम शैक्षिक सीमाएं है। लेकिन मीडिया के लिए कोई भी और कुछ भी चलेगा वाला हिसाब चल रहा है।

चाहे बड़े मीडिया घराने हों या फिर छोटा, शिक्षा के मामले में यहां सब कुछ चलता है। मसलन आपके पास तीन माह का सर्टीफिकेट हैं या फिर तीन साल की बैचलर डिग्री या फिर दो साल की मास्टर डिग्री, सभी कागजी पैमाने पर एक औकात के एक बराबर हैं। आपका जुगाड़ हो या अद्भुत प्रतिभा हो लेकिन डिग्री-डिप्लोमा-सर्टिफिकेट के मामले में मीडिया का कोई जवाब नहीं।

वैसे तो मीडिया हाउसों में सैलरी स्ट्रक्चर भी बड़ा बेतरतीब और अजीब होता है। एक ही ग्रेड के दो कर्मचारियों की तनख्वाह में भी कम-ज्यादा और कभी तो बहुत ज्यादा अंतर होता है। लेकिन प्रतिभा और अनुभव का उस वक्त सर्वाधिक हनन होता है जिस वक्त एक तीन माह का सर्टीफिकेटधारी साधारण स्नातक बॉस बनकर दो वर्ष की मास्टर डिग्रीधारी कनिष्ठ पर हुकुम चलाता है। कम उम्र के साथ कम शिक्षा, बौद्धिक स्तर में उस दो वर्षीय परास्नातक से कितना आगे होगी, बताने की जरूरत नहीं। लेकिन संपादक को पसंद आया और उन्होंने कम पढ़े लिखे को बॉस बना दिया। अब झेलो।

यह स्थिति केवल एक संस्थान की नहीं बल्कि आज देश के सर्वश्रेष्ठ से लेकर आखिरी नंबर तक के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हाउसेज में शिक्षा के साथ यह भद्दा मजाक किया जा रहा है। ज्ञान, प्रतिभा, उम्र, अनुभव आदि विशेषणों को दरनिकार कर अपने सगे-संबंधियों, जानकारों या फिर केवल दयापात्रों को उनके ऊपर हुकुम चलाने की कमान सौंपी जा रही है। देश के सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग का दर्जा पाने वाली मीडिया में शिक्षा के साथ स्वयं इतना अन्याय सहन नहीं होता।

इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में स्थिति और ज्यादा बुरी है। बिना किसी सर्टीफिकेट, डिप्लोमा या डिग्री के 16-18 साल की लड़कियां चैनलों में दिन भर इधर-उधर कूदती फांदती देखी जा सकती हैं। इनके पास ज्ञान और शिक्षा के अलावा सबकुछ है। चैनलों में इन्हें रखने का मकसद ऑफिस के माहौल को जीवंत रखना, बॉस को आई टॉनिक देना, गेस्ट को वेल्कम करना वगैरह-वगैरह होता है। प्रिंट मीडिया की लाइन में इन्हें आई-कैंडी के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन चैनलों में इन लड़कियों की तनख्वाह और पद का नाम सुनकर अच्छे-अच्छे और पुराने मीडिया के धुरंधर भी पानी भरते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि चैनल को इनसे क्या फायदे मिलते हैं।

यहां पर चैनल का जिक्र करने का इरादा केवल इतना भर है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में ज्ञानवान, होनहार, खूबसूरत और काबिल छात्राएं-युवतियां-लड़कियां भी पत्रकारिता, जनसंचार जैसे डिग्री कोर्स कर रही हैं। उनके पास न केवल शक्ल बल्कि अक्ल भी है। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता एवं जन संचार जैसे विषय पढऩे वाले छात्रों के पास भी हुनर और अक्ल की कमी नहीं है। लेकिन डिग्री पाने के बाद बिना किसी जुगाड़ और गॉड फादर के वे भी अपनी डिग्री को कोसते हैं।

पिछले कुछ सालों में मैनें स्वयं करीब डेढ़ सौ युवक-युवतियों से मीडिया का हाल जाना। पता चला कि उनका कोई चैनल-अखबार में काम करने वाला बताता है कि- यार तुम्हारे पास सबकुछ है लेकिन लिंक नहीं है। वर्ना देखो...फलां केवल इंटर पास है, न हिंदी आती है और अंग्रेजी भी मासाल्लाह है। लेकिन ट्रेनी असिस्टेंट प्रोड्यूसर या सब एडीटर बना हुआ है। जुगाड़ से काम करवा दिया गया है। जल्द ही डिप्लोमा भी कर लेगा। अगर तुम्हें भी कहीं सेट होना है तो कुछ जुगाड़ तलाशो।

तो भईय्या यह स्थिति हो गई है अपनी मीडिया की। मीडिया में काम करने वाले खुद इस हकीकत से रूबरू हैं। कम शिक्षा और अनुभव वाले आज तर्जुबाधारी और कागजों की डिग्री का ढेर लगाए प्रतिभाशाली लोगों पर राज कर रहे हैं, उन्हें हुकुम दे रहे हैं, बता रहे हैं कि बेटा अब मीडिया पत्रकारिता नहीं रही, बल्कि माई आईडिया हो गई है। इससे वो अभिषेक बच्चन का डायलॉग याद आ गया---(व्हाट एन आईडिया सर जी, एन आईडिया कैन चेंज योर लाइफ)। लेकिन मीडिया में वरिष्ठों का माई आईडिया उनके करीबियों का मिरैकल आईडिया बन गया और मीडिया के माई आईकन बन गए। जबकि पढ़ें फारसी बेचें तेल वाली कहावत मीडिया शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं पर चरितार्थ हो गई।

....अंत में मेरा मीडिया घरानों के मालिकों, संपादकों, प्रोड्यूसर्स जैसे समस्त सम्मानित और काबिल लोगों से आग्रह है कि मीडिया को लोगों की नजरों में गिरने से बचाने के लिए काबिल लोगों की फौज भर्ती करें। इसके लिए पारदर्शी दाखिला प्रणाली बनाएं, परीक्षाएं आयोजित करें, साक्षात्कार लें, जांचें, देखें फिर योग्यता, अनुभव और प्रतिभानुसार उसे पद, वेतन और सुविधाएं मुहैय्या कराएं। प्रतिभा का हनन, सक्षम और समर्थ व्यक्तियों का नैतिक पतन करना है। इसलिए खुद अपने हाथों से इस सम्मानित क्षेत्र को गर्त में न ढकेलें। आने वाली पीढ़ी को एक स्वतंत्र, बुलंद, निरपेक्ष और लक्ष्याधारित मीडिया सौंपनें के लिए अभी से यह सकारात्मक परिवर्तन शुरु करना होगा।

9 comments:

  1. Kumar Ji Apne to apne is blog ke zariye media ki sachchai bayan kar di hai... ye lekh padne mai aisa lag raha tha mano jaise kisi ne chowthe pillor ki sachai ko khud se rubaru kara diya ho......

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  2. keep this sprit up. god bless u

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  3. wen ur next article is coming? do inform me.

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  4. Kumar Ji Aapka Next Article Is Bar Kaun Sa Naya Khulasa Karega.... I am Waiting For That....

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  5. Amit ji aapne bahut achchha likha hai. agar journalist banne liye exam ho to is jobe ke prati logon ka najariya badal jayega. bhai bhateeja vad nahi hoga. halanki kharab log har bat ka tod nikal lete hai. lykin achchhe prayas nahi roke ja sakte.

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  6. कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,
    धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,
    कलम के पुजारी अगर सो गये तो
    ये धन के पुजारी
    वतन बेंच देगें।
    हिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज "जनोक्ति "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . नीचे लिंक दिए गये हैं . http://www.janokti.com/ , साथ हीं जनोक्ति द्वारा संचालित एग्रीगेटर " ब्लॉग समाचार " से भी अपने ब्लॉग को अवश्य जोड़ें .

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  7. Behad sashakt aalekh! Shubhkamnayen!

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  8. आपने जितनी भी बातें लिखी है उनमें सच्चाई लफ्ज ब लफ्ज सही है। लेकिन एक्सपीरियंस भी कोई चीज होती है। मीडिया जैसे फील्ड में पढ़ाई नहीं सामाजिक बुद्धि मायने रखती है। क्योंकि किताबी कीड़े किताबी ज्ञान तो झाड़ सकते है लेकिन बुद्धिमानी की बातें नहीं कर सकते है क्योंकि ये किताबें बुद्धिमत्ता से ही लिखी जाती है और समय के साथ साथ चीज़े बदलती है

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