Monday, 14 February 2011

गर ठुकराया हमें तो और कौन देगा ऐसी मिसाल...



"कि कब से बेकरार थे, कितने बीमार थे,

क्या करते, कैसे कहते इतने लाचार थे।

उन्हें भी थी खबर हमारी चाहत की खूब,

वो न सुनने को, न हम कहने को तैयार थे।।



पल बीते, बीते साल पर दिल का रहा वही हाल,

बढ़ती रही चाहत पर बदला न दिल का सवाल।

उनकी आंखों में थी चमक पर था एक ख्याल,

गर ठुकराया हमें तो और कौन देगा ऐसी मिसाल।।



शायद खुदा को थी हमारी वफा की ऐसी फिक्र,

आखिरकार एक दिन उन्होंने अपने होंठ हिलाए।

थोड़ा इठलाए, इतराए और फिर कुछ यूं मुस्कराए,

जिस बात को दिल-ए-नादां था "अमित" बेकरार।।



चंद मोहब्बत के अल्फाज उनकी जुबां पे आए,

आंखों में आंखें डालकर वो कुछ यूं शरमाए।

कि समझ में आया हमें इकरार का यह अंदाज,

कि होंठ भी न हिलें आंखें ही सबकुछ कह जाएं।।



यही है मोहब्बत की वो कहानी जो हर दिल चाहे,

कि जिससे करे वो आशिकी वो यार मिल जाए।

उस पल के बाद चाहे आशिक फना हो जाए,

या खुदा तेरी रहमत हर आशिक के साथ हो जाए।।"

Sunday, 30 January 2011

महात्मा गांधी के बाद उनके परिवार का क्या हुआ?

नाम: मोहनदास करमचंद गांधी। उपनाम: बापू, संत, राष्ट्रपिता, महात्मा
गांधी। जन्मतिथि: 2 अक्तूबर 1869। जन्म स्थान: पोरंबंदर, गुजरात। विशेष:
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अंहिसक और शांतिप्रिय प्रमुख क्रांतिकारी,
जन्मदिन पर राष्ट्रीय अवकाश, भारतीय मुद्रा पर फोटो, सरकारी कार्यालयों
में तस्वीर।

बचपने से ही विद्यालयों में बच्चों को बापू के बारे में बताया जाता है और
उनकी जीवनी रटाई जाती है। दे दी हमें आजादी बिना खडग़ बिना ढाल, साबरमती
के संत तूने कर दिया कमाल। गाना भी हिंदुस्तानियों की जुबां पर सुना जा
सकता है। लेकिन नाम गुम जाएगा चेहरा ये नजर आएगा... कहावत आज बापू पर
चरितार्थ होती दिख रही है। बस फर्क इतना है कि नाम गांधी जयंती पर याद
आता है और चेहरा कभी कभार नोट को ध्यान से देखने पर दिखता है।

इतनी जानकारी आज स्वतंत्र भारत में अधिकांशत: हर पढ़े लिखे व्यक्ति को
पता है। गांधी की जीवनी बचपने में पढऩे के बाद हर वर्ष 2 अक्तूबर को
राष्ट्रीय अवकाश वाले दिन भी गांधी से संबंधित कई लेख पढऩे को मिल जाते
हैं। लेकिन महात्मा गांधी के बाद उनके परिवार का क्या हुआ? उनके कितने
बच्चे थे? आज उनके परिवार के सदस्य जीवित भी हैं या नहीं? उनके परिवार की
कितनी पीढिय़ां आज मौजूद हैं? वे क्या कर रहीं हैं? कहां हैं? कितने सदस्य
हैं? जैसे तमाम सवाल हैं जिनका जवाब पढ़े लिखे तो क्या विशेषज्ञों और
पीएचडी धारकों को भी नहीं पता होंगे।

लेकिन आज आपको बताते हैं महात्मा गांधी के परिवार की मौजूदा स्थिति के
बारे में। इंटरनेट की एक वेबसाइट की मानें तो बापू के पौत्र, प्रपौत्र और
उनके भी आगे के वंशज आज विश्व में छह देशों में निवास कर रहे हैं। जिनकी
कुल संख्या 136 सदस्यों की है। हैरानी होगी यह सुनकर कि इनमें से 12
चिकित्सक, 12 प्रवक्ता, 5 इंजीनियर, 4 वकील, 3 पत्रकार, 2 आई.ए.एस., 1
वैज्ञानिक, 11 चार्टड एकाउंटेंट, 5 निजी कंपनियों मे उच्चपदस्थ अधिकारी और
4 पी.एच.डी. धारी हैं। इनमें सबसे ध्यान देने योग्य बात यह है कि मौजूदा
परिवार में लड़कियों की संख्या लड़कों से काफी ज्यादा है। आज उनके परिवार
के 136 सदस्यों में से 120 जीवित हैं। जो भारत के अलावा अमेरीका, दक्षिण
अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और इंग्लैंड में रहते हैं।

बापू के बारे में:
महात्मा गांधी के पिता का नाम करमचंद्र और माता का नाम पुतलीबाई था। अपने
परिवार में सबसे छोटे बापू की एक सबसे बड़ी बहन और दो बड़े भाई थे। इनकी
सबसे बड़ी बहन रलियत, फिर भाई लक्ष्मीदास और भाभी नंद कुंवरबेन, भाई
कृषणदास और भाभी गंगा थीं।

बापू का परिवार
सबसे बड़े पुत्र हरिलाल (1888-18 जून 1948) का ब्याह गुलाब से हुआ। जबकि
दूसरे पुत्र मणिलाल (28 अक्तूबर 1892-4 अप्रैल 1956) की पत्नी का नाम
सुशीला था। तीसरे पुत्र रामदास (1897-1969)की शादी निर्मला से हुआ। जबकि
चौथे और अंतिन पुत्र देवदास (1900-1957)की पत्नी लक्ष्मी थीं।

वंशावली दूसरी पीढ़ी से
-रामिबेन गांधी-कवंरजीत परिख
१.अनसुया परिख-मोहन परिख
क. राहुल परिख-प्रभा परिख ख. लेखा-नरेन्द्र सुब्रमण्यम
अवनी व अक्षय अमल

2.सुधा वजरिया-व्रजलाल वजरिया
क.मनीषा-राजेश परिख ख. पारुल-निमेष बजरिया
नील व दक्ष अनेरी व सार्थक

ग. रवि वजरिया-शीतल वजरिया
आकाश व वीर

3. प्रबोध परिख-माधवी परिख
क. सोनल-भरत परिख ख. पराग-पूजा परिख
रचना व गौरव प्राची व दर्शन

४. नीलम परिख-योगेन्द्र परिख
क. समीर परिख-रागिनी पारिख
सिद्धार्थ, पार्थ व गोपी

-कांतिलाल गांधी-सरस्वती गांधी
१. शांतिलाल-सुझान गांधी
अंजली, अलका , अनिता व एना

2. प्रदीप गांधी-मंगला गांधी
प्रिया व मेघा

-रसिकलाल गांधी

-मनुबेन गांधी-सुरेन्द्र मशरूवाला
१. उर्मि देसाई-भरत देसाई
क. मृणाल देसाई-आरती देसाई ख. रेणू देसाई

-शांतिलाल गाँधी
------------------------------
पहली पीढी । दूसरी पीढी । तीसरी पीढी । चौथी पीढी । पाँचवीं पीढी

-सीता गांधी-शशीकांत धुबेलिया
१. कीर्ति मेनन-सुनील मेनन
सुनीता

2. उमा मिस्त्री-राजेन मिस्त्री
सपना

3. सतीश धुपेलिया-प्रतिभा धुपेलिया
मीशा, शशिका व कबीर

-अरुण गांधी-सुनंदा गांधी
क. तुषार गांधी-सोनल गांधी ख. अर्जना प्रसाद- हरि प्रसाद
विवान व कस्तूरी अनिष व परितोष

-इला गांधी-मेवालाल रामगोबिन
क. कृष गाँधी
ख. आरती रामगोबिन
ग. केदार रामगोबिन-मृणाल रामगोबिन
घ. आशा रामगोबिन
ड़. आशिष रामगोबिन-अज्ञात
मीरा व निखिल

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-सुमित्रा गांधी-गजानन कुलकर्णी
1. सोनाली कुलकर्णी

2. श्रीकृष्ण कुलकर्णी-नीलू कुलकर्णी
विष्णु

3. श्रीराम कुलकर्णी-जूलिया कुलकर्णी
शिव

-कहान गांधी-शिव लक्ष्मी गांधी

-उषा गोकाणी-हरीश गोकाणी
1. संजय गोकाणी-मोना गोकाणी
नताशा व अक्षय

2. आनंद गोकाणी-तेजल गोकाणी
करण व अर्जुन

---------------------------
-रामचंद्र गांधी-इंदू गांधी
लीना गाँधी

-तारा भट्टाचार्य-ज्योति भट्टाचार्य
1. विनायक भट्टाचार्य-लूसी भट्टाचार्य
इण्डिया अनन्या, अनुष्का तारा व एंड्रीया लक्ष्मी

2. सुकन्या भरतराम-विवेक भरतनाम
अक्षर विदूर

-राजमोहन गांधी-उषा गांधी
1. देवव्रत गांधी
2. सुप्रिया गाधी

-गोपाल कृष्ण गांधी-तारा गांधी
1. अनिता गांधी
2. दिव्या गांधी
3. रुस्तम मणिया

Monday, 3 January 2011

सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक थे अतुल जी

"है मौत उसी की जिस पर करे जमाना अफसोस,
यूं तो मरने के लिए सभी आया करते हैं।"

वैसे तो संपादकीय और प्रबंधन के बीच की रार-तकरार और उनसे उपजने वाली दिक्कतों से तकरीबन सभी मीडियाकर्मी आज काफी हद तक रूबरू हो चुके हैं। हिंदी पट्टी के प्रमुख अखबारों में तो यह बात भलीभांति अनुभव की जा सकती है। लेकिन अमर उजाला परिवार के लोगों में से अधिकांश ही शायद इससे कोई सरोकार रखते हों। इसका प्रमुख कारण अमर उजाला के प्रबंध निदेशक श्री अतुल महेश्वरी की दूरदर्शिता, दूरगामी निर्णय, कुशल प्रबंधन क्षमता, संपादकीय में नियमित हस्तक्षेप और हर विभाग में संतुलन बनाने की बेहतर कला थी।
शायद हिंदी के प्रमुख अखबारों मसलन दैनिक जागरण, भास्कर, हिंदुस्तान या अन्य को मेरी कही बात बुरी लग जाए लेकिन सत्य कटु ही होता है। अमर उजाला को देश के सर्वश्रेष्ठ तीन अखबारों में शुमार करने का श्रेय अतुल जी को ही जाता है। इसे पाने के लिए दूरदर्शिता और प्रबंधकीय कौशल को अमर उजाला से जुड़ा हर शख्स बहुत बेहतर ढंग से जानता और मानता है। लेकिन इसके अलावा भी सबसे बड़ी बात जो अन्य अखबारों की तुलना में अतुल जी को बहुत बड़ा, पूजनीय और आदर्श बनाती है वो है उनका सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन प्रबंधन कौशल और कर्मचारियों के हित में लिए जाने वाले निर्णय।
मैं यहां अन्य अखबारों को नीचा दिखाने की नहीं बल्कि उनके प्रबंधकों को स्वर्गीय श्री अतुल महेश्वरी जी से सबक लेने की कोशिश कर रहा हूं। वो भी यह कि ऊंचा उठने के दो रास्ते होते हैं पहला कि अपने साथ वाले लोगों को नीचे दबाकर उनपक खड़ा होकर ऊंचा हुआ जाए, दूसरा अपने साथ वालों को इतना ऊंचा कर दिया जाए कि खुद का कद और ऊंचा हो जाए। पहला तरीका जागरण, भास्कर और हिंदुस्तान अपना रहे हैं। जबकि दूसरा तरीका स्वर्गीय अतुल जी ने बेहतर ढंग से अपनाया। अपने कर्मचारियों को प्रमुख हिंदी अखबारों की तुलना में सबसे बेहतर सुविधाएं, वेतनभत्ते, सम्मान, प्रोन्नति देने में उनका कोई सानी नहीं। अमर उजाला के कर्मचारी अन्य अखबारों की तुलना में खुद को इस मामले में काफी आगे मानते हैं। लेकिन अन्य अखबारों में इस बात की कमी के चलते वहां असंतोष और समस्याएं फैली हुई हैं। कर्मचारियों के हितों की अनदेखी कर मालिक-प्रबंधन अपनी जेबें भरने और स्वार्थ साधने में जुटे हुए हैं। कर्मचारियों को उठाकर ऊपर उठने से इन्हें कोई वास्ता नहीं।
यूं तो मैं एक अमर उजाला का कर्मचारी मात्र हूं और अभी तक तीन-चार बार ही उनसे रूबरू हुआ। अकेले में उनसे कभी बात नहीं हो सकी। हर बार बैठक में ही उन्हें बोलते और सभी से अपना पक्ष रखने के लिए कहते सुना। लेकिन शायद ही अपने सबसे कनिष्ठ कर्मचारी के साथ बैठकर विचार विमर्श करने की क्षमता किसी अन्य अखबार के मालिकों में हों।
एक और हतप्रभ और चिंतित कर देने वाली भी बात है जिसके कारण मैं अतुल जी को कुछ दोष भी देना चाहूंगा कि अपने खराब स्वास्थ्य की जानकारी उनके परिवार के अलावा किसी को नहीं थी। पिछले साल उनके ऑपरेशन के बाद इस वर्ष भी वे जब गुडग़ांव के फोर्टिंस अस्पताल में दाखिल हुए तो अमर उजाला के वरिष्ठ संपादकीय, प्रबंधकीय कर्मियों को इसकी कानोंकान खबर तक नहीं हुई। जानकारों के मुताबिक अतुल जी नहीं चाहते थे कि उनके बिगड़े स्वास्थ्य की खबर से काम में किसी भी प्रकार की बाधा पड़े। यदि वे समय रहते इसके बारे में बताते तो देश-विदेश के बड़े अस्पतालों में उनका आसानी से इलाज कराया जा सकता था। लेकिन कर्मठता को वरीयता देने की उनकी फितरत ही उन्हें दी दगा दे गई।
आज अतुल जी के असामायिक निधन ने इस बात को सामने लाने के लिए मजबूर किया। समूचे मीडिया जगत के लिए और मीडिया में अपना करियर तलाश रहे युवाओं के लिए यह बड़ी ही दुखद और अपूर्णनीय क्षति है। एक लंबे सफर के कुशल मार्गदर्शक और विनम्र स्व. अतुल जी मीडिया जगत के लिए एक पथ प्रदर्शक की तरह जिए।

कुमार हिंदुस्तानी

Saturday, 15 May 2010

Why argue on VEER SANGHAVI & BARKHA DUTTA case

...केवल वीर और बरखा ही दोषी क्यों?
हंगामा है क्यूं बरपा, दलाली के सवाल पर?


-मीडिया जगत के लिए यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है।
-इससे पहले भी कई बार पत्रकारों का नाम दलाली में आ चुका है।
-आज मीडिया के कितने दिग्गज सीना ठोककर कह सकते हैं कि वो बेदाग हैं?
-दरअसल आज की कॉरपोरेट मीडिया का यही है असली चेहरा जिसे हम देखना नहीं चाहते।
-जिसको सब जानते हैं उसका नाम आए तो बवाल और अपने ऊपर के अधिकारी को कौन देख रहा?


हंगामा है क्यूं बरपा वीर-बरखा के नाम पर, हंगामा है क्यूं बरपा दलाली के सवाल पर।। ऐसे में दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है..

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

आग, वो वाकई आग ही है जो हम पत्रकारों को सभी से जुदा करती है। कुछ नया ढूंढऩे की आग, कुछ नया करने की आग, कुछ नया लिखने की आग और यह आग ही है जो हम सभी को आगे ले जाने में मददगार साबित होती है।

मैं मुद्दे से भटका नहीं केवल वो प्रस्तावना लिख रहा था जो हम सभी को मुद्दे से न भटकने दे। दरअसल मैं न तो वीर-बरखा का समर्थक हूं और न हीं उनका विरोधी। आजकल मीडिया के बहुचर्चित मंच भड़ास4मीडिया पर इन दोनों के बढ़ते हिट्स ने मुझे भी इस पर कुछ लिखने पर विवश किया। मीडिया घराने आज कॉरपोरेट हो गए हैं। इनमें संपादकों की जगह मार्केटिंग और सेल्स के वाइस प्रेसीडेंट और मैनेजर्स हावी हो चुके हैं। एडिटोरियल का मीडिया घराने में दखल इनके मुकाबले काफी कम हो चुका है। अब संपादकों और संपादकीय टीम की औकात बाजार से पैसे लाने वाली टीम से काफी कम हो चुकी है।

वीर-बरखा आज मीडिया के वो ताजा चेहरे बन चुके हैं जिनका नाम खुले रूप से दलाली और गैरमीडिया हरकतों में शुमार हो चुका है, सभी के सामने आ गया है, सीबीआई की जांच में खुल चुका है। कॉरपोरेट जगत की शतरंजी बिसात में मंत्रियों को मोहरों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए नीरा राडिया, वीर संघवी, बरखा दत्त एक ओर से खेल रहे हैं और दूसरी ओर से कॉरपोरेट जगत के दिग्गज। यह वो कॉरपोरेट टाइकून हैं जो अपने हित साधने के लिए इन्हें पैसे देकर अपना मोहरा सही जगह फिट करते हैं।
पर क्या हम केवल वीर और बरखा को ही दोषी करार दें? क्या वीर-बरखा ही मीडिया की दाल में कुछ काला हैं? क्या वीर-बरखा के अलावा बाकी मीडिया पाक-साफ और वंदनीय है? क्या वीर-बरखा ने ऐसा कुछ किया है जो आज तक किसी और मीडियाकर्मी ने नहीं किया? क्या मीडिया हस्ती के रूप में शुमार हो चुके वीर-बरखा इस पचड़े में शामिल हैं इसलिए ही इतना बवाल मचा हुआ है? क्या इनके काले कारनामें सामने आने के बाद से मीडिया के दिग्गज और छुटभैय्ये ऐसा कुछ नहीं करेंगे? क्या मीडिया आज अपने उसूलों पर खरी उतर रही है? क्या आज मीडिया अपने वास्तविक पथ पर चल रही है? और भी न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में कौंध रहे हैं।
आप मानें या न मानें, हलक से नीचे उतरे या नहीं लेकिन हकीकत से रूबरू हो जाने में ही समझदारी है। आज मीडिया घराने दरअसल दलाली का एक गढ़ बन चुके हैं। कभी मीडिया घराने के मालिक का कोई काम, कभी संपादक का और कभी मार्केटिंग के वाइस प्रेसीडेंट का। हर बॉस का काम कराना पत्रकारों की मजबूरी भी है और इसके लिए वो नैतिक या अनैतिक रास्ता नहीं देखते। कैसे भी और कुछ भी की तर्ज पर उनके काम कराना जरूरी और मजबूरी होता है। मेरा लेख पढऩे वाले आप में से शायद ही कोई हो जो इस हकीकत से वास्ता न रखता हो।
अब बात करते हैं दलाली की। आज मीडिया का दूसरा चेहरा दलाली ही हो गया है। बड़े मीडिया हाउस और बड़ी मीडिया हस्तियां बड़ी दलाल और छोटे पत्रकार और मीडिया के छोटे घराने छोटे दलाल। दोनों एक दूसरे को फूटी कौड़ी नहीं सुहाते लेकिन एक हमाम में हैं तो दोनों बखूबी वाकिफ हैं कि हम दोनों नंगे हैं। अगर नहीं मानते हैं तो जितनी भी मीडिया हस्तियों के नाम पता हों उनके घर का पता ढूंढि़ए उनके घर पहुंचिए और देखिए उनके ऐशोआराम। मीडिया में होने के नाते सभी दिग्गजों का पहला पता तो आम लोगों के लिए कुछ आम टाइप ही होगा। लेकिन उनके किसी बेहद करीबी से पता करिए तो पता चलेगा कि सर का किस शहर में कितना बड़ा प्लॉट है और किस हॉट सिटी में कितने बेडरूम का लग्जरी फ्लैट। उनके कितने बैंक अकाउंट हैं और किसमें कितना पैसा है? उनकी पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों की क्या हैसियत है और वे कहां सेट हैं? उनके रिश्तेदारों के अकाउंट में कितना पैसा है? साथ ही न जाने कितनी और जानकारियों से आप हैरान परेशान हो जाएंगे।
...टेंशन लेने की जरूरत नहीं बस केवल इतना सोचने की हिम्मत जुटाईए कि मीडिया में केवल एक वीर और एक बरखा ही ऐसे नहीं हैं जो दलाली, मोटी कमाई और अपने उसूलों से समझौता करके आज हर ऐशोआराम के स्वामी बन गए हैं। उनके रिश्तेदारों के पास आज हर लग्जरी सुविधाएं हैं। पर देखना कौन चाहता है यार? क्योंकि मेहनत से जी चुराना हम सभी को भाने लगा है। हकीकत न देखना मीडिया कर्मियों का शगल बनता जा रहा है। हकीकत न देखने के ज्यादा पैसे मिलते हैं और हकीकत बयां करने पर कानूनी नोटिस, दुश्मनी, बॉस की फटकार और नौकरी जाने का खतरा मंडराता रहता है। इसलिए मीडिया के अधिकांश लोग आज आंखें मूंद लेने में ही भलाई समझते हैं। आज मीडिया संस्थानों में अनुशासन, कर्मठता, सदाचारी, सत्य-तथ्य आदि के भाषण बाचने वाले दिग्गजों के गिरेबान में झांककर देखिए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

वीर-बरखा ने यह किया इस पर मुझे बस केवल इतना आश्चर्य हुआ कि इन दोनों को क्या जरूरत थी? इनके पास पैसा, पॉवर, प्रतिष्ठा, बैक अप और भी बाकी सबकुछ मौजूद था तो इन्होंने अपनी साख का जुआं क्यों खेला? क्यों इन्होंने बदनामी का डर किए बिना खुद को बेच दिया और लाखों प्रशंसकों का दिल तोड़ दिया? लेकिन अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो होना था हो चुका। अब हमारे सामने केवल हकीकत और सुबूत हैं जिनकी बदौलत हमको निर्णय लेकर आगे का सफर पूरा करना है।

क्या यही है मीडिया की हकीकत?

क्या आपने कभी सोचा है कि मीडियाकर्मियों का वेतन उनके बराबर डिग्री पाने वाले बीटेक-एमबीए से क्यों कम होता है? क्यों मीडिया में डिग्री-डिप्लोमा की अहमियत नहीं होती? क्यों मीडियाकर्मी कम पैसों में और मुफ्त में भी नौकरी करने के लिए तैयार रहते हैं?
क्योंकि मीडिया एक ऐसा सशक्त और जुगाड़ू माध्यम है जिसका सही से और दिमाग से इस्तेमाल करने वाला पैसे के लिए परेशान नहीं होता। उसे जितना चाहिए होता है वो उससे भी ज्यादा का जुगाड़ खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है। आज भी मीडिया में आने वाले नए युवा तेवर, ईमानदारी, जानकारी, बोलचाल, हुनर, लेखन, संपादन में बेहतर हैं, उनके अंदर मीडिया की आग से खेलने का जज्बा है लेकिन उन्हें सही जगह नहीं मिल रही। गाहे-बगाहे किसी को मिली भी तो उसे वरिष्ठों या फिर घाघों ने जमने नहीं दिया और साठ गांठ से बाहर का रास्ता दिखवा दिया।
किसी भी मीडिया घराने के खातों की तिमाही-छमाही-सालाना रिपोर्ट उठा लीजिए मुनाफे के आंकड़े देखकर उसके कद का अंदाजा सहज ही हो जाएगा। लेकिन इस मुनाफे के लिए जिम्मेदार पत्रकारों और कर्मियों को इस मुनाफे का कोई हिस्सा नहीं मिलता। आईआरएस और टीआरपी में पहले से पांचवें पायदान पर काबिज चैनल और अखबारों की प्रतियां बढ़ती जा रही हैं लेकिन उनके कर्मियों को आज भी सरकारी चतुर्थ वर्ग के समान भी वेतन नहीं मिल रहा है। महंगाई को देखते हुए सरकार छठा वेतनमान लगा चुकी है लेकिन मीडिया में वेतन का कोई पैमाना आज भी नहीं लग सका। आखिर इसकी क्या वजह है? क्यों मीडिया घरानों के मालिक पत्रकारों को इतना कम वेतन देते हैं? जाहिर सी बात है उन्हें पता है कि मीडियाकर्मी जुगाड़ करके रोजी रोटी के अलावा घरबार भी जुटा लेते हैं। मीडिया घरानों के मालिकों और संपादकों को बखूबी पता है कि इतने कम वेतन में काम करने वाला व्यक्ति अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाथ पैर तो मारेगा ही और इससे उनके भी हित सधेंगे। उनके कानूनी-गैरकानूनी काम आसानी से एक झटके में हो जाएंगे।
मेरी राय है कि अब मीडियाकर्मियों को एकजुट होने का वक्त आ चुका है। आज जरूरत है कि टीवी, रेडियो, अखबार, मैगजीन, वेब आदि के मीडियाकर्मी एक मंच पर एक संगठन से जुड़ें और दूसरे के हितों को मसाला बनाकर बेचने की जगह खुद के हकों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों के मालिकों को बता दें कि हम कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे नहीं हैं जो हमारे बराबर डिग्री धारी से कम वेतनमान पर काम करें। संशोधित वेतनमान और सम्मान की मीडियाकर्मियों को भी दरकार है। दूसरों की आवाज को उठाने वाले अगर खुद एक जुट होकर खड़े हो जाएं तो इतिहास बन जाएगा, एक नया अध्याय जुड़ जाएगा और अपने हितों को साधने में जुटे कुकुरमुत्ते की तरह आ रहे नए मीडिया घरानों के मालिकों को उनकी फौज की ताकत का पता चल जाएगा।
और जिस दिन मीडियाकर्मियों को उनके खर्चे पूरे करने लायक जायज वेतन मिलने लगेगा दावे के साथ कह सकता हूं कि उस दिन मीडिया में दलाली की दाल नहीं गलेगी। मीडियाकर्मी छोटे हितों के लिए समझौता करना छोड़ देंगे और फिर से हमारे देश को एक नया और सशक्त मीडिया मिल सकेगा।

एक नए सवेरे के इंतजार में

आपका

कुमार हिंदुस्तानी

Sunday, 11 April 2010

NCR's Temerature Rising B'coz

एनसीआर में तेज गर्मी का कारण सिर्फ बढ़ता पारा ही नहीं बहुत कुछ और भी है

दिल्ली की सर्दी...गाना बहुत फेमस हुआ और सर्दियों में पारे के नीचे गिरने से पिछले कई वर्षों के रिकार्ड टूटे। लेकिन सिर्फ सर्दी ने ही सबको रूलाया ऐसा नहीं है, यहां की गर्मी भी लोगों को पसीने से तर बतर कर तड़पा रही है। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र में सबसे ज्यादा तरक्की की ओर बढ़ता वह क्षेत्र जहां पर हर कोई अपना आशियाना बनाने की चाह रखता है। लेकिन इस क्षेत्र में लगातार उंचाईयां छू रहे पारे के कारण बढऩे वाली गर्मी ने यहां के लोगों को किसी अन्य जगह या फिर किसी पहाड़ी जगह पर जाने के लिए मजबूर कर दिया है। क्या सिर्फ बढ़ता हुआ तापमान ही इस बेइंतहा गर्मी का मुख्य कारण है या फिर कुछ और वजह भी है।
दरअसल, प्रकृति ने भी अपने आपको एक निराले और बेहतरीन विज्ञान से निर्मित किया है और समय-समय पर अपने आपको संवारती भी रहती है। जैसे किसी को भी अपने कामों में किसी अन्य का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होता, वैसे ही प्रकृति भी किसी भी तरह की छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती। यही वजह है कि जितना हम रोज प्रदूषण फैला रहे हैं प्रकृति भी हमको तेज गर्मी, आंधी, तूफान, सूनामी, बिजली, मूसलाधार बारिश, भूकंप सहित न जाने कितनी ही तकलीफें पहुंचा कर अपने संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश कर रही है।
आज आधुनिकीकरण की दौड़ में जंगल और पेड़ों को काटकर शहरों का निर्माण हो रहा है जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है। एनसीआर में प्रतिदिन दर्जनों इमारतों का निर्माण होना, लाखों वाहनों और हजारों फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं, जहरीली गैसों का अत्याधिक उत्सर्जन सहित न जाने कितने ही तमाम कारण है जो यहां की गर्मी को सिर्र्फ पारे के हिसाब से ही नहीं कई अन्य वजहों से भी बढ़ा रहे हैं।
मौसम विभाग के वैज्ञानिक का कहना है कि काफी हद तक यह सही है कि गर्मी लगने का कारण सिर्फ पारे का चढऩा ही नहीं होता। हमारे आसपास बनी हुईं हजारों फैक्ट्रियां प्रतिदिन वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साईड, सल्फर डाई ऑक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साईड व मीथेन सहित न जाने कितनी ही अन्य हानिकारक और जहरीली गैसें घोलती हैं। इसके साथ ही वाहनों से निकलने वाला धुआं, पुराने हो चुके एअर कंडीशनर व फ्रिज, टायर व पॉलीथीन जैसी गंदगी को जलाना, नॉन रिसाइक्लेबिल प्रोडक्ट्स का प्रयोग, भवन निर्माण में उठने वाली धूल सहित कई ऐसे भी कारण है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे वातावरण को प्रदूषित करने के साथ ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा रहे हैं।
वातावरण में गर्मी बढऩे का एक कारण तो ग्लोबल वार्मिंग है ही लेकिन हमारे द्वारा प्रदूषण फैलाने से हमारा लोकल एटमॉशफीयर गर्म होकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ाता है। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग सिर्फ एक ही जगह से नहीं बढ़ती है बल्कि इसके लिए पूरा विश्व जिम्मेदार है।
हमारे क्षेत्र में प्रदूषण बढऩे से गैसों ने एडमॉशफीयर की सबसे निचली सतह लोअर ट्रोपोस्फीयर के पास तक गैसों की एक लेयर(पर्त) बना दी है। जिससे हमारे आस पास का तापमान बढऩे से हमारे आस पास की हवा गर्म हो जाती है और इन प्रदूषित गैसों की पर्त के कारण ज्यादा उपर नहीं उठ पाती। चूंकि यहां पर पेड़ों की संख्या पर्याप्त न होकर कम है इसलिए यह गर्म हवा चारों ओर चलती रहती है। जिसके फलस्वरूप हमकड्ड भारत के ज्यादातर क्षेत्रों की तुलना में यहां पर गर्मी कुछ ज्यादा ही महसूस होती है।

गर्मी लगने के मुख्य कारण-

-फोटो सेंथेसिज(प्रकाश संश्लेषण क्रिया)- सूरज की रोशनी और वातावरण की कार्बन डाई ऑक्साईड गैस को पेड़ों की पत्तियां शोषित कर लेती हैं और वातावरण में ऑक्सीजन गैस उत्सर्जित करती हैं। पेड़ों की कमी से वातावरण में जहरीली गैसों की बढ़ोत्तरी, ऑक्सीजन की कमी, ठंडी हवा की कमी और भूगर्भ जल स्तर की गिरावट होती है। जिसके फलस्वरूप हम गर्म हवा, लू, ज्यादा तापमान, उमस की शिकायत करते हैं।

-ह्यïूमिडिटी- हवा में वाष्प की मात्रा को कहते हैं। हाई ह्यïूमिडिटी में पसीना निकलने में परेशानी होती है और ज्यादा गर्मी लगती है।

-कंफर्ट इंडेक्स- ह्यïूमिडिटी और तापमान के संयुक्त प्रभाव को कहते हैं। दोनों के बढऩे से कंफर्ट इंडेक्स बढ़ता है और गर्मी ज्यादा परेशान करती है।

Tuesday, 6 April 2010

Worlh Health Day: Unsafe Syringes & Increasing Patients

असुरक्षित इंजेक्शन का प्रयोग दे रहा अनचाही बीमारियों को न्यौता

तेजी से बढ़ते जा रही तकनीकी और विज्ञान के नवीन अनुप्रयोगों के बावजूद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। प्रतिवर्ष सात अप्रैल को मनाए जाने वाले विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष रूप से यह जानकारी आपको जरूर चौंकाएगी। रिपोर्ट के अनुसार विश्व के विकासशील देशों में प्रयोग किए जाने वाले आधे से ज्यादा इंजेक्शन असुरक्षित होते हैं। जिनसे बीमार को फायदा कम और अनचाही बीमारियां ज्यादा मिलती हैं। बढ़ती कालाबाजारी और अप्रशिक्षित कर्मचारियों के कारण हमारे देश के सरकारी अस्पतालों में भी लगभग सत्तर फीसदी इंजेक्शन असुरक्षित हैं।
वल्र्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन (डब्लूएचओ) की मानें तो विकासशील देशों में कई खतरनाक और अनचाही बीमारियां मुफ्त मेंं मिल रही हैं। हालांकि अनचाही बीमारियां पाने वालों में सबसे ज्यादा संख्या गरीब और किसानों की हैं जो धनाभाव के कारण झोलाछाप और छोटे-मोटे चिकित्सकों से अपना इलाज कराते हैं। गरीबों से पैसे ऐंठने के फेर में यह चिकित्सक इनको हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी, एड्स जैसी गंभीर बीमारियों का शिकार बना रहे हैं।
हिंदुस्तान सहित कई विकासशील देशों में असुरक्षित सिरिंज का इस्तेमाल मौत को दावत दे रहा है। थोड़े सा पैसे कमाने के फेर में झोलाछाप डाक्टर्स और नीम-हकीम एक सिरिंज को कई बार इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा पिछड़े इलाकों में तमाम कंपनियां भी एक बार प्रयोग हो चुके इंजेक्शन को दोबारा नई पैकिंग में बेच देती हैं। कुशल कंपाउडर्स और अटेंडेंट की कमी भी इंजेक्शन को संक्रमित कर देती है। देश में आज भी काफी अस्पतालों में कांच के इंजेक्शन जो अच्छी तरह से स्ट्रलाइज नहीं होते प्रयोग किए जाते हैं। इन सभी का इस्तेमाल सिर्फ बीमारियों को न्यौता ही दे रहा है।

क्या कहती है शोध रिपोर्ट
सरकारी अस्पतालों को दिए जाने वाले लगभग 35 प्रतिशत इंजेक्शन पूरी तरह से स्ट्रलाइज नहीं होते जबकि लगभग 34 फीसदी खराब रखरखाव और अप्रशिक्षित कर्मियों के द्वारा प्रयोग किए जाने से संक्रमित हो जाते हैं। देश में करीब 75 फीसदी सिरिंज प्लास्टिक के होते हैं जबकि अन्य कांच के। निजी अस्पतालों में भी करीब 59 फीसदी इंजेक्शन संक्रमण फैलाते हैं।

संक्रमित इंजेक्शन से भारत की बीमारियों का ब्यौरा
-53.6 प्रतिशत हेपेटाइटिस बी
-59.5 फीसदी हेपेटाइटिस सी
-24.3 फीसदी एचआईवी एड्स

-5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को 71 फीसदी इंजेक्शन दिए जाते हैं जबकि 25 से 59 वर्ष के लोगों को 70 फीसदी।
-48.1 प्रतिशत हर प्रेसक्रिप्शन में इंजेक्शन की सिफारिश की जाती है।

क्यों होता है संक्रमण
-सही ढंग से स्ट्रलाइज न होना
-सुई को दोबारा इस्तेमाल करना
-इंजेक्शन की री-पैकिंग
-बायो-वेस्ट मैनेजमेंट की कमी
-कांच के इंजेक्शनों का इस्तेमाल
-अप्रशिक्षित कर्मियों द्वारा प्रयोग करना
-नियमित ड्रग्स और इंसुलिन लेने वाले
-झोलाछाप डाक्टर्स द्वारा

आटो डिसेबल सिरिंज है निवारण
देश भर में हर साल लाखों लोगों में संक्रमण फैला रहा इंजेक्शन को देखने से सही या खराब का फैसला नहीं किया जा सकता। कई कंपनियों द्वारा बाजार में लाया गया आटो डिसेबल सिरिंज (एडीएस) काफी कारगर साबित हुआ है। एडीएस इंजेक्शन में ऐसी प्रणाली इस्तेमाल होती है जिससे इसके प्रयोग के बाद यह स्वत: ही लाक होकर बेकार हो जाता है और दोबारा इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता।

सावधानी भी है बचाव
-हमेशा प्रतिष्ठित मेडिकल स्टोर से इंजेक्शन खरीदें
-बिल से जरूर लें
-जांच ले कि इंजेक्शन की पैकिंग सही है
-कांच का इंजेक्शन लगवाने से मना कर दें
-डिस्पोजेबल सिरिंज को इस्तेमाल के बाद नष्ट कर दें
-अस्पतालों में बायो-वेस्ट मैनेजमेंट का सही प्रयोग हो
-झोलाछाप डाक्टर्स और नीम-हकीम से इलाज न कराएं

Thursday, 1 April 2010

Beware, someone is making u fool

आज रहिए कूल, ताकि कोई बना न दे अप्रैल फूल

एक तारीख मतलब अप्रैल फूल किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। खासकर उन व्यक्तियों के लिए जो दीन-दुनिया से बेखबर अपने में ही खोए रहते हैं। आज कूल बने रहना आपको कई मुसीबतों से बचा सकता है। किसी दोस्त के एसएमएस, पड़ोसी की गुगली, गर्लफ्रैंड की फोनकाल या फिर किसी सहकर्मी की ई-मेल देखने के बाद हर तरीके से सोच समझ कर ही कोई कार्य करना आपको हंसी का पात्र बनाने से बचा सकता है।
हर साल की तरह आज एक अप्रैल यानी कि अप्रैल फूल डे है। यह वही दिन है जिस दिन दुनिया भर के हर कोने में लाखों-करोड़ों लोग मजाक बन कर रह जाते हैं। समय के साथ हाईटेक होते लोग भी अप्रैल फूल बनाने के लिए एक से बढ़कर एक तरीके एख्तियार कर रहे हैं। अब दोस्तों को पुराने तरीकों से बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा। इसके लिए इंटरनेट काफी मददगार साबित हो रहा है।
अप्रैल फूल बनाने के लिए इंटरनेट पर हजारों वेबसाइट मौजूद हैं। जिनमें एक से एक मजेदार और फुलप्रूफ तरीके बताए गए हैं। कुछ तरीके तो इतने मजेदार हैं जिनको कोई बिना मूर्ख बने समझ ही नहीं सकता है। जैसे काफी मग में व्हाइट पेपर (सफेद मिर्च) लगाकर काफी सर्व करना किसी के पकड़ में नहीं आने वाला।
एक से बढ़कर एक जबर्दस्त एसएमएस और ग्रीटिंग्स की भरमार है। बहाने भी इतने सालिड हैं कि वाकई अब दोस्तों की खैर नहीं।

बाक्स
क्या करें ताकि न बन पाएं अप्रैल फूल
-कोई भी एसएमएस, फोनकाल या ई-मेल का न तो तुरंत रिप्लाई और न हीं कोई निर्णय लें
-अपने दोस्तों से विशेषरूप से सावधानी बरतें
-अचानक बने पार्टी वगैरह के कार्यक्रम में शिरकत करने से बचें
-कहीं भी जाने पर सोच-विचार कर ही कोई कार्य करें
-सिर्फ करीबी ही नहीं अनजान लोग भी आपको बेवकूफ बनाने में खुश होते हैं

बेवकूफ बनाने से पहले सोचें जरूर
-ध्यान रखें कि मजाक केवल एक हद में ही होता है
-अप्रैल फूल बनाने के चक्कर में किसी की भावनाओं, जाति-धर्म, मासूमियत या विश्वास का फायदा न उठाएं
-अनजान को मूर्ख बनाने से पहले प्रतिक्रिया के बारे में सोच लें
-शारीरिक या फिर सामाजिक स्तर पर मखौल उड़ाने से बचें
-सोचें कि यदि आप उस जगह होते तो क्या करते

यदि बन ही जाएं तो क्या करें
-संयमित होकर अपने को समझाएं कि यह केवल एक मजाक है
-गुस्सा या झगड़ा न करें
-गंभीर स्थिति में फंस गए हों तो बड़ी ही सूझबूझ से अपने आप को बाहर निकालें
-किसी पब्लिक प्लेस पर मजाक बनने पर मुस्कराते हुए धन्यवाद देना आपकी महानता व्यक्त करेगा
-केवल एक प्यार भरी हंसी सामने वाले का भी मजाक बना सकती है

पिछले कुछ सालों के प्रसिद्ध किस्से
अप्रैल फूल अब बहुत बड़े स्तर पर बेवकूफ बना रहा है। इसके लिए तमाम लोग मीडिया और हाइटेक संचार यंत्रों का भी सहारा लेने से नहीं चूकते। पिछले कुछ वर्षों में दुनिया भर के तमाम ऐसे किस्से जिन्होंने हजारों लाखों लोगों को बेवकूफ बनाया।
-ब्रिटनी स्पियर्स और संजय का विवाह
-बिल गेट्स का इस्लाम धर्म कबूलना
-बीएमडब्लू कार, स्पेस सैटेलाइट, जीपीएस सिस्टम आदि से संबंधित कई खबरें
-मंगल ग्रह पर पानी की खबर
-विंडोज कंप्यूटर सिस्टम पर है विंडोज वायरस की ई-मेल