Saturday 15 May, 2010

Why argue on VEER SANGHAVI & BARKHA DUTTA case

...केवल वीर और बरखा ही दोषी क्यों?
हंगामा है क्यूं बरपा, दलाली के सवाल पर?


-मीडिया जगत के लिए यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है।
-इससे पहले भी कई बार पत्रकारों का नाम दलाली में आ चुका है।
-आज मीडिया के कितने दिग्गज सीना ठोककर कह सकते हैं कि वो बेदाग हैं?
-दरअसल आज की कॉरपोरेट मीडिया का यही है असली चेहरा जिसे हम देखना नहीं चाहते।
-जिसको सब जानते हैं उसका नाम आए तो बवाल और अपने ऊपर के अधिकारी को कौन देख रहा?


हंगामा है क्यूं बरपा वीर-बरखा के नाम पर, हंगामा है क्यूं बरपा दलाली के सवाल पर।। ऐसे में दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है..

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

आग, वो वाकई आग ही है जो हम पत्रकारों को सभी से जुदा करती है। कुछ नया ढूंढऩे की आग, कुछ नया करने की आग, कुछ नया लिखने की आग और यह आग ही है जो हम सभी को आगे ले जाने में मददगार साबित होती है।

मैं मुद्दे से भटका नहीं केवल वो प्रस्तावना लिख रहा था जो हम सभी को मुद्दे से न भटकने दे। दरअसल मैं न तो वीर-बरखा का समर्थक हूं और न हीं उनका विरोधी। आजकल मीडिया के बहुचर्चित मंच भड़ास4मीडिया पर इन दोनों के बढ़ते हिट्स ने मुझे भी इस पर कुछ लिखने पर विवश किया। मीडिया घराने आज कॉरपोरेट हो गए हैं। इनमें संपादकों की जगह मार्केटिंग और सेल्स के वाइस प्रेसीडेंट और मैनेजर्स हावी हो चुके हैं। एडिटोरियल का मीडिया घराने में दखल इनके मुकाबले काफी कम हो चुका है। अब संपादकों और संपादकीय टीम की औकात बाजार से पैसे लाने वाली टीम से काफी कम हो चुकी है।

वीर-बरखा आज मीडिया के वो ताजा चेहरे बन चुके हैं जिनका नाम खुले रूप से दलाली और गैरमीडिया हरकतों में शुमार हो चुका है, सभी के सामने आ गया है, सीबीआई की जांच में खुल चुका है। कॉरपोरेट जगत की शतरंजी बिसात में मंत्रियों को मोहरों के रूप में इस्तेमाल करने के लिए नीरा राडिया, वीर संघवी, बरखा दत्त एक ओर से खेल रहे हैं और दूसरी ओर से कॉरपोरेट जगत के दिग्गज। यह वो कॉरपोरेट टाइकून हैं जो अपने हित साधने के लिए इन्हें पैसे देकर अपना मोहरा सही जगह फिट करते हैं।
पर क्या हम केवल वीर और बरखा को ही दोषी करार दें? क्या वीर-बरखा ही मीडिया की दाल में कुछ काला हैं? क्या वीर-बरखा के अलावा बाकी मीडिया पाक-साफ और वंदनीय है? क्या वीर-बरखा ने ऐसा कुछ किया है जो आज तक किसी और मीडियाकर्मी ने नहीं किया? क्या मीडिया हस्ती के रूप में शुमार हो चुके वीर-बरखा इस पचड़े में शामिल हैं इसलिए ही इतना बवाल मचा हुआ है? क्या इनके काले कारनामें सामने आने के बाद से मीडिया के दिग्गज और छुटभैय्ये ऐसा कुछ नहीं करेंगे? क्या मीडिया आज अपने उसूलों पर खरी उतर रही है? क्या आज मीडिया अपने वास्तविक पथ पर चल रही है? और भी न जाने कितने ही सवाल मेरे दिमाग में कौंध रहे हैं।
आप मानें या न मानें, हलक से नीचे उतरे या नहीं लेकिन हकीकत से रूबरू हो जाने में ही समझदारी है। आज मीडिया घराने दरअसल दलाली का एक गढ़ बन चुके हैं। कभी मीडिया घराने के मालिक का कोई काम, कभी संपादक का और कभी मार्केटिंग के वाइस प्रेसीडेंट का। हर बॉस का काम कराना पत्रकारों की मजबूरी भी है और इसके लिए वो नैतिक या अनैतिक रास्ता नहीं देखते। कैसे भी और कुछ भी की तर्ज पर उनके काम कराना जरूरी और मजबूरी होता है। मेरा लेख पढऩे वाले आप में से शायद ही कोई हो जो इस हकीकत से वास्ता न रखता हो।
अब बात करते हैं दलाली की। आज मीडिया का दूसरा चेहरा दलाली ही हो गया है। बड़े मीडिया हाउस और बड़ी मीडिया हस्तियां बड़ी दलाल और छोटे पत्रकार और मीडिया के छोटे घराने छोटे दलाल। दोनों एक दूसरे को फूटी कौड़ी नहीं सुहाते लेकिन एक हमाम में हैं तो दोनों बखूबी वाकिफ हैं कि हम दोनों नंगे हैं। अगर नहीं मानते हैं तो जितनी भी मीडिया हस्तियों के नाम पता हों उनके घर का पता ढूंढि़ए उनके घर पहुंचिए और देखिए उनके ऐशोआराम। मीडिया में होने के नाते सभी दिग्गजों का पहला पता तो आम लोगों के लिए कुछ आम टाइप ही होगा। लेकिन उनके किसी बेहद करीबी से पता करिए तो पता चलेगा कि सर का किस शहर में कितना बड़ा प्लॉट है और किस हॉट सिटी में कितने बेडरूम का लग्जरी फ्लैट। उनके कितने बैंक अकाउंट हैं और किसमें कितना पैसा है? उनकी पत्नी, बच्चों और रिश्तेदारों की क्या हैसियत है और वे कहां सेट हैं? उनके रिश्तेदारों के अकाउंट में कितना पैसा है? साथ ही न जाने कितनी और जानकारियों से आप हैरान परेशान हो जाएंगे।
...टेंशन लेने की जरूरत नहीं बस केवल इतना सोचने की हिम्मत जुटाईए कि मीडिया में केवल एक वीर और एक बरखा ही ऐसे नहीं हैं जो दलाली, मोटी कमाई और अपने उसूलों से समझौता करके आज हर ऐशोआराम के स्वामी बन गए हैं। उनके रिश्तेदारों के पास आज हर लग्जरी सुविधाएं हैं। पर देखना कौन चाहता है यार? क्योंकि मेहनत से जी चुराना हम सभी को भाने लगा है। हकीकत न देखना मीडिया कर्मियों का शगल बनता जा रहा है। हकीकत न देखने के ज्यादा पैसे मिलते हैं और हकीकत बयां करने पर कानूनी नोटिस, दुश्मनी, बॉस की फटकार और नौकरी जाने का खतरा मंडराता रहता है। इसलिए मीडिया के अधिकांश लोग आज आंखें मूंद लेने में ही भलाई समझते हैं। आज मीडिया संस्थानों में अनुशासन, कर्मठता, सदाचारी, सत्य-तथ्य आदि के भाषण बाचने वाले दिग्गजों के गिरेबान में झांककर देखिए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

वीर-बरखा ने यह किया इस पर मुझे बस केवल इतना आश्चर्य हुआ कि इन दोनों को क्या जरूरत थी? इनके पास पैसा, पॉवर, प्रतिष्ठा, बैक अप और भी बाकी सबकुछ मौजूद था तो इन्होंने अपनी साख का जुआं क्यों खेला? क्यों इन्होंने बदनामी का डर किए बिना खुद को बेच दिया और लाखों प्रशंसकों का दिल तोड़ दिया? लेकिन अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो होना था हो चुका। अब हमारे सामने केवल हकीकत और सुबूत हैं जिनकी बदौलत हमको निर्णय लेकर आगे का सफर पूरा करना है।

क्या यही है मीडिया की हकीकत?

क्या आपने कभी सोचा है कि मीडियाकर्मियों का वेतन उनके बराबर डिग्री पाने वाले बीटेक-एमबीए से क्यों कम होता है? क्यों मीडिया में डिग्री-डिप्लोमा की अहमियत नहीं होती? क्यों मीडियाकर्मी कम पैसों में और मुफ्त में भी नौकरी करने के लिए तैयार रहते हैं?
क्योंकि मीडिया एक ऐसा सशक्त और जुगाड़ू माध्यम है जिसका सही से और दिमाग से इस्तेमाल करने वाला पैसे के लिए परेशान नहीं होता। उसे जितना चाहिए होता है वो उससे भी ज्यादा का जुगाड़ खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है। आज भी मीडिया में आने वाले नए युवा तेवर, ईमानदारी, जानकारी, बोलचाल, हुनर, लेखन, संपादन में बेहतर हैं, उनके अंदर मीडिया की आग से खेलने का जज्बा है लेकिन उन्हें सही जगह नहीं मिल रही। गाहे-बगाहे किसी को मिली भी तो उसे वरिष्ठों या फिर घाघों ने जमने नहीं दिया और साठ गांठ से बाहर का रास्ता दिखवा दिया।
किसी भी मीडिया घराने के खातों की तिमाही-छमाही-सालाना रिपोर्ट उठा लीजिए मुनाफे के आंकड़े देखकर उसके कद का अंदाजा सहज ही हो जाएगा। लेकिन इस मुनाफे के लिए जिम्मेदार पत्रकारों और कर्मियों को इस मुनाफे का कोई हिस्सा नहीं मिलता। आईआरएस और टीआरपी में पहले से पांचवें पायदान पर काबिज चैनल और अखबारों की प्रतियां बढ़ती जा रही हैं लेकिन उनके कर्मियों को आज भी सरकारी चतुर्थ वर्ग के समान भी वेतन नहीं मिल रहा है। महंगाई को देखते हुए सरकार छठा वेतनमान लगा चुकी है लेकिन मीडिया में वेतन का कोई पैमाना आज भी नहीं लग सका। आखिर इसकी क्या वजह है? क्यों मीडिया घरानों के मालिक पत्रकारों को इतना कम वेतन देते हैं? जाहिर सी बात है उन्हें पता है कि मीडियाकर्मी जुगाड़ करके रोजी रोटी के अलावा घरबार भी जुटा लेते हैं। मीडिया घरानों के मालिकों और संपादकों को बखूबी पता है कि इतने कम वेतन में काम करने वाला व्यक्ति अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए हाथ पैर तो मारेगा ही और इससे उनके भी हित सधेंगे। उनके कानूनी-गैरकानूनी काम आसानी से एक झटके में हो जाएंगे।
मेरी राय है कि अब मीडियाकर्मियों को एकजुट होने का वक्त आ चुका है। आज जरूरत है कि टीवी, रेडियो, अखबार, मैगजीन, वेब आदि के मीडियाकर्मी एक मंच पर एक संगठन से जुड़ें और दूसरे के हितों को मसाला बनाकर बेचने की जगह खुद के हकों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों के मालिकों को बता दें कि हम कोई ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे नहीं हैं जो हमारे बराबर डिग्री धारी से कम वेतनमान पर काम करें। संशोधित वेतनमान और सम्मान की मीडियाकर्मियों को भी दरकार है। दूसरों की आवाज को उठाने वाले अगर खुद एक जुट होकर खड़े हो जाएं तो इतिहास बन जाएगा, एक नया अध्याय जुड़ जाएगा और अपने हितों को साधने में जुटे कुकुरमुत्ते की तरह आ रहे नए मीडिया घरानों के मालिकों को उनकी फौज की ताकत का पता चल जाएगा।
और जिस दिन मीडियाकर्मियों को उनके खर्चे पूरे करने लायक जायज वेतन मिलने लगेगा दावे के साथ कह सकता हूं कि उस दिन मीडिया में दलाली की दाल नहीं गलेगी। मीडियाकर्मी छोटे हितों के लिए समझौता करना छोड़ देंगे और फिर से हमारे देश को एक नया और सशक्त मीडिया मिल सकेगा।

एक नए सवेरे के इंतजार में

आपका

कुमार हिंदुस्तानी