Friday 26 February, 2010

what is objective of our life? THINK



...हम किस गली जा रहे हैं.........???

कभी-कभी ऐसा होता है कि आप के मन में एक सवाल कई बार आता है। लेकिन आप चाह कर भी उसे समझ नहीं पाते। शब्द नहीं दे पाते। सवाल का हल नहीं ढूंढ़ पाते। परेशान हो जाते हैं। जब सवाल के बारे में सोचने लगते हैं तो सवाल दिमाग से फुर्र्र हो चुका होता है। ऐसा एक बार नहीं कई बार होता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं कभी एक तरफा नहीं सोच पाता। जब तक कोई निर्णय नहीं लेता जब तक सिक्के के दोनों पहलू न समझ लूं।
कभी-कभी यह स्थिति काफी चिंताजनक और परेशानी खड़ी करने वाली होती है। लेकिन करूं भी तो क्या इस चिंता से नहीं उबर पाता और जैसा मेरा रवैय्या है उसके मुताबिक कई बार नहीं तो कम से कम एक बार आप भी ऐसी ही स्थिति से दो चार हुए जरूर होंगे।
दरअसल सवाल बिल्कुल वाजिब, वैयक्तिक, विस्तृत, विश्लेषणात्मक और वैश्विक है। इसलिए इसका हल भी साधारण नहीं हो सकता। हम किस गली जा रहे हैं... शायद कुछ माह पहले ही यह गाना किसी के मोबाइल पर बजता सुना। उसके कुछ दिन बाद मेरी मैडम ने भी यह गाना अपने मोबाइल पर सेव कर लिया और अक्सर सुना करती हैं। तो यह गाना अब तक मेरे कानों में कई बार गूंज चुका है। एक बार गाने के कुछ बोलों पर गौर करते हैं और फिर सोचते हैं अपने सवाल के बारे में।
तो गाना कुछ यूं है-
हम किस गली जा रहे हैं, हम किस गली जा रहे हैं।
अपना कोई ठिकाना नहीं, अपना कोई ठिकाना नहीं।
अरमानों के अंजुमन में, बेसुध है अपनी लगन में।
अपना कोई फसाना नहीं, अपना कोई फसाना नहीं।...
खैर गाना तो लंबा है लेकिन मुझे सिर्फ इसके मुखड़े से मतलब है। गाने के बोलों पर गौर करें तो हम किस रास्ते पर चल रहे हैं, हमारी मंजिल क्या है, हमें कहां जाकर थमना है, किस लक्ष्य को पाना है और क्या हासिल करना है। हमें कुछ भी नहीं पता है। हजारों ख्वाहिशों-अरमानों के इस आभासी बाग-बगीचे में होने के बावजूद हम बेसुध हैं उसी उधेड़बुन में कि हमें यह पाना है, यह बटोरना है, यह हासिल करना है, फलां को नीचा दिखाना है और भी न जाने क्या क्या? लेकिन हमारा कोई फलसफा नहीं है, कुछ भी धरातल पर नहीं है।
पर गौर करने वाली बात है कि इस हकीकत से हम कभी रूबरू ही नहीं हो सके। आज मैंने सोचा कि क्यूं न खुदी से रूबरू होया जाए। क्यूं न यह जानूं कि आखिर मेरी मंजिल क्या है? आखिर मुझे क्या पाना है? आखिर मैं क्यूं इस अंधी दुनिया में भागता जा रहा हूं? क्या हासिल करके खुश होना चाहता हूं? क्यूं दिन-रात एक करके कामयाबी पाने की ललक खत्म होने का नाम नहीं होती? क्यों जब मेरी काबीलियत को दरनिकार कर किसी अयोग्य को आगे बढ़ाया जाता है तो मुझे ईष्र्या सी होने लगती है? आखिर क्यों मैं समस्या आने पर आपा खो बैठता हूं, टूटने लगता हूं, हारा हुआ महसूस करने लगता हूं? आखिर वो क्या चीज है जिसे पाने के बाद मेरी लालसा खत्म हो जाएगी? मेरी जिंदगी के सफर का वो पड़ाव कब आएगा? न जाने कितने सवाल मेरे सामने आंधी में उड़ते धूल के कणों की तरह खड़े होते चले गए। मैं लाख चाहने के बाद भी इन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूं। हल नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता हूं कि इसका आखिर उत्तर क्या है।
लेकिन क्या आपने सोचा है कि आखिर आप भी कौन सी अंधी दौड़ में शामिल हैं, क्या पाना चाहते हैं, जिंदगानी का मकसद क्या है, क्या पाकर संतुष्टि हासिल करेंगे? मुझे पक्का यकीन है कि आपका जवाब भी यही होगा कि यार आज तक इस बारे में सोचा नहीं। कुछ यह भी कह सकते हैं कि क्यों बेफिजूल की बातों में अपना वक्त बर्बाद करूं। या फिर कुछ यह भी सोच सकते हैं कि कोई सिरफिरा है जो बेकार ही सवाल कर रहा है। खुद भी परेशान है और मुझे भी परेशान कर रहा है।
लेकिन मेरे भाई हकीकत से दूर मत भागो। बैठो। सोचो। फिर सोचो। ध्यान लगाओ कि आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या हासिल करोगे? हासिल कर लिया तो फिर क्या करोगे? उसके बाद क्या पाने की ललक पैदा हो जाएगी?
सवाल वाकई हैरत में डालने वाला है। सुबह से लेकर रात तक अंधी दौड़ में शामिल हम सब पता नहीं किसे संतुष्ट करना चाहते हैं। खुद को या फिर समाज को या फिर परिवार को। लेकिन सवाल फिर वहीं पीछे छूट जाता है कि यदि हम सभी को संतुष्ट करने के पीछे दौड़ते ही रहे तो सभी पीछे छूट जाएंगे और आगे पहुंचकर संतोष पाने वाले मिल नहीं सकेंगे क्योंकि वो तो बिछड़ चुके हैं।
इसलिए जरूरी है कि आत्मचिंतन किया जाए। सोचा जाए कि हमारी खुदी का मकसद क्या है? विचार किया जाए कि दूसरों को खुशी देने के लिए पहले खुद खुश होना जरूरी है या फिर दुखी होकर खुशी दी जा सकती है। पहचान की जाए कि आखिर वो कौन सा अंधा रास्ता है जिसपर हम तेजी से दौड़े जा रहे हैं लेकिन मंजिल का नामोंनिशां तक नहीं दिखता।
अब बात करते हैं अपने पत्रकारिता समाज की। पढ़ा है कि सच की लौ को बरकरार रखने के लिए ही पत्रकार पैदा होते और मरते हैं। लोगों को हकीकत से रूबरू कराना ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। कैसे भी करके सच को सामने लाना इनके कंधों पर लदी जिम्मेदारी होती है। लेकिन हम में से कितने इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। जिन संस्थानों के लिए हम काम कर रहे हैं उनका मकसद क्या है? हकीकत को सामने लाने में सफल भी रहे तो संस्थान का मकसद आड़े आ जाता है। और अंत में ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है कि इतनी मेहनत की, पंगा लिया, समय बर्बाद किया लेकिन खबर-सच्चाई दब गई। इसके पीछे क्या वजह है?
सीधी सी सच्चाई यह है कि आज बाजार हावी है। खबर और विज्ञापन सब बाजार के जरिए संचालित किए जा रहे हैं। हकीकत से नहीं बल्कि बिजनेस से मीडिया के ठेकेदारों को सरोकार है। तो ऐसे में क्या हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जवाब है कतई नहीं। बिल्कुल नहीं और कभी नहीं।
क्या किया जाए कि यह बोझ लेकर न जीना पड़े कि चाहते कुछ थे लेकिन मजबूरी में कर कुछ और रहे हैं। बाद में यह सोचकर न पछताना पड़े कि यार ऐसा नहीं करते तो ही ज्यादा अच्छा था। या फिर आईने में अपने अक्स को देखकर नजरें न चुरानी पड़े। इसके लिए हमको अब इस सवाल को फिर से दोहराना पड़ेगा।
हम किस गली जा रहे हैं। इस सवाल का हल खोजना पड़ेगा। जानना पड़ेगा कि आखिर हम क्या चाहते हैं। हम खुद को घुटते हुए देखकर जीने पर यकीन करते हैं या फिर खुली हवा में सांस लेकर बेफिक्री से जीना पसंद है। हमारी मंजिल वो है जिसमें सभी साथ चलकर पहुंचे और खुश हों या फिर जहां हम अकेले पहुंच कर अफसोस जताएं कि
हम खुशी की चाह में जिंदगी से दूर हो गए,
ढूंढऩे चले थे जिंदगी, जिंदगी से दूर हो गए।

कुछ भी करिए लेकिन कुछ यूं करिए कि जीवन का सफर तय करने के बाद कभी अफसोस न हो कि उस वक्त ये न किया होता तो आज यह दुख न उठाना पड़ता। आपका तो पता नहीं लेकिन आज मुझे मेरे सवाल का शायद 80 फीसदी जवाब मिल गया है।

आपका साथी

कुमार हिंदुस्तानी

Tuesday 23 February, 2010

U can't runaway from TRUTH.

...आंखें मूंद लेने से हकीकत नहीं छिपती मेरे दोस्त।

सभी पाठकों को नमस्कार। जाहिर सी बात है कि अगर आपने इस पोर्टल को खोला है तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया से आपका लगाव होना लाजमी है। कई जगह देखा तमाम लोगों से सुना कि यार भड़ास4मीडिया वाकई लाजवाब है। सभी तारीफ करने वाले मीडियाकर्मी है और इस पोर्टल से उनका अक्सर वास्ता पड़ता है।
लेकिन मैं इस बात से वास्ता नहीं रखता कि भड़ास4मीडिया डॉट कॉम वाकई लाजवाब है। दरअसल हकीकत इससे परे है। इस पोर्टल को लाजवाब कहने वाले मेरे दोस्त-मित्र शायद खुद से ही झूठ बोल रहे हैं। वे क्या आप सभी भी जानते हैं कि यह पोर्टल लाजवाब नहीं है। इस पोर्टल पर ऐसा कुछ भी नहीं रहता जिसकी हम सभी को जानकारी नहीं होती। तो क्या बात है जो हम सभी इससे जुड़े हुए हैं? क्यों हम सभी को इसकी लत लग चुकी है? क्यों हम सभी इंटरनेट मिलते ही जल्द से जल्द भड़ास4मीडिया डॉट कॉम टाइप करके पेज खुलने का इंतजार करते हैं? क्यों हम सभी पेज रिफ्रेश करके देखते रहते हैं कि मीडिया जगत पर अब कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? क्यों हम सभी को इंतजार रहता है कि यार मेरा लेख अब तक पब्लिश क्यों नहीं हुआ? क्यों इतने कम समय में यशवंत, सभी मीडियाकर्मियों (कुछ अपवादों को छोड़कर) के चहेते और शुभचिंतक बन गए हैं?
चलिए मैं आपको बताता हूं कि आखिर इसकी असलियत क्या है? दरअसल आज के मीडिया घरानों को हकीकत से वास्ता नहीं है। खबरों का आज व्यवसायीकरण हो चुका है। जो बाजार में बिक सकता है या फिर जिससे संस्थान को मुनाफा हो सकता है वही खबर चलाई या छापी जाती है। जो भी फायदे का सौदा हो सकता है उसे ही खबर बना दिया जाता है। विज्ञापन की पार्टी है या फिर खबर छापने या चलाने से विज्ञापन नहीं तो मेज के नीचे से कुछ मिलेगा, उसी को वरीयता दी जाती है। इस खेल की टीम के कोच और मैनेजर मीडिया घरानों के मालिक और संपादक बन बैठे हैं।
इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकार और डेस्क पर कार्यरत कर्मियों की फौज भी इस व्यवसायिक खबरों को लाने और छापने/दिखाने के लिए जिम्मेदार हो गई है। मालिक-संपादकों को जो पसंद है सिर्फ वही खबर है यह बात आज हर पत्रकार को भलीभांति मालूम है। आज मीडिया में एक्सक्लूसिव कुछ नहीं रहा। बल्कि मालिक-संपादक को फायदा पहुंचता है और उसने उस खबर से संबंधित बातें कभी नहीं सुनी तो वो समाचार एक्सक्लूसिव की श्रेणी में आ जाता है। मतलब साफ कि आज इन सभी संस्थानों में काम करने वाले छोटे-बड़े मीडियाकर्मी भी चाहे-अनचाहे, ज्ञान-अज्ञान, जानते-भूलते खबरों के व्यवसायीकरण के जिम्मेदार हो गए हैं। असल पत्रकारों को अच्छी तरह पता होता है कि कहां पर क्या वाकई खबर है और क्या नहीं? किसे चैनल-अखबार में स्थान मिलना चाहिए और किसे नहीं? क्या हकीकत है और क्या झूठ है? क्या लिखना/दिखाना चाहिए और क्या नहीं? इन सभी सवालों से हर असल पत्रकार बखूबी वाकिफ है। लेकिन फिर भी नौकरी चलाने के लिए उसे झूठ का चोला ओढ़कर आंख मूंद कर हकीकत पर पर्दा डालना पड़ता है। वो लिखना/दिखाना पड़ता है जिसका खबर या हकीकत से कोई सरोकार नहीं बल्कि ऊपर बैठे लोगों से ताल्लुक है।
इन सबका मतलब क्या निकलता है? चलिए आपके मुंह की बात मैं छीन कर कहता हूं कि आज हम सभी मीडियाकर्मी झूठ में जी रहे हैं। दर्शकों/पाठकों को झूठ परोस रहे हैं। हकीकत से उन्हें वहां लिए जा रहे हैं जहां मीडिया घराने का स्वार्थ जुड़ा हुआ है। यानी कि आज खुद पत्रकारों को हकीकत देखना ऐसा लगता है कि जैसे कोई इब्नेबतूता सामने आ खड़ा हुआ हो। जैसे अमावस्या की काली अंधियारी रात में सूरज अपनी रोशनी और तपिश से एकदम बौखला दे। जैसे समुंदर का पानी आसमान में तैरते हुए हिलोरे मारने लगे। जैसे पैरों तले तपते ज्वालामुखी का लावा हो और उस पर चल रहे हों।
अब फिर से आता हूं वापस उस मुद्दे पर कि क्या यह पोर्टल वाकई लाजवाब है। इसका जवाब अब तक शायद आप सभी को मिल चुका होगा। लेकिन शब्दों में बयां करना जरूरी है। दरअसल आज सभी मीडियाकर्मी हकीकत से कोसों दूर हो चुके हैं। ऐसे में भड़ास4मीडिया लोगों को नंगी हकीकत, कड़ुवा सच, पूर्ण सत्य, बेबाक बयानी, कलम की पैनी और धारदार ताकत, जमींर में कईयों फीट दब चुकी चिंगारी को सामने लाता है। जो आज मैं और मेरे पत्रकार साथी नहीं लिख/दिखा सकते उसे निडर होकर लिखता है। जो देखकर भी मुंह नहीं खोल सकते उसे पूरी दुनिया के सामने नंगा कर देता है। नौकरी जाने के डर से जो हकीकत दबा देते हैं उसे डंके की चोट पर दिखाता है।
ऐसे में हम सभी को अब सच देखने पर आश्चर्य होने लगा है। कहीं पर हकीकत पढ़ते/देखते ही शरीर का रोयां खड़ा हो जाता है कि यार इसने कैसे कर दिया। यही वो वजह है जिसने इस पोर्टल को लाजवाब बनाया है।
लेकिन अफसोस होता है कि अभी भी न जाने कितने मीडिया घराने हैं जो आंखें बंद करके यह सोच रहे हैं कि अब हकीकत कोई नहीं देख सकता। लगभग देश के सभी दिग्गज मीडिया घरानों में आज भड़ास4मीडिया डॉट कॉम को ब्लॉक कर दिया गया है। कोई भी कर्मचारी अपने कंप्यूटर पर इसे नहीं देख सकता। मीडिया घरानों के ठेकेदारों को डर है कि कहीं इससे उनके सिपहसलार कहीं बगावत न कर दें। कहीं मीडिया के अंदर भी आंदोलन का बिगुल न बज जाए। कहीं उनके संस्थान के उच्चतम प्रबंधकीय विवाद की खबर उनके सबसे नीचे काम करने वाले कर्मियों को न लग जाए। मालिक-संपादक यह सोचते हैं कि आंख बंद कर लो, सच छिप जाएगा, वेबसाइट को ब्लॉक कर दो कोई नहीं देखेगा। लेकिन बंद आंखों के अंदर मन तो खुला हुआ है। वे भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि ऑफिस में न सही तो घर में, दोस्त के यहां, मोबाइल पर या लैपटॉप पर वे सभी कर्मी रोजाना न सही तो हर दूसरे दिन भड़ास4मीडिया देखते जरूर हैं। वेबसाइट पर किसी भी नई खबर की जानकारी इंटरनेट के जरिए न सही तो उनके किसी साथी के द्वारा फोन पर कॉल-एसएमएस के जरिए मिल जाती है।
तो मुर्दा हो चुकी गैरत के मंद (बेगैरतमंद) मालिक-संपादकों भले ही आंखें बंद कर लो, भले ही वेबसाइट पर बैन लगा दो, भले ही वेबसाइट को ब्लॉक कर दो। लेकिन हकीकत तुम्हारे बाप की बपौती नहीं जो तुम डकार जाओगे और किसी को खबर भी नहीं होगी। सच नंगा होता है और नंगा किसी से डरता नहीं। इसलिए हकीकत से वास्ता रखो। भले ही मीडिया को व्यवसाय बनाकर मोटी कमाई कर रहे हो लेकिन अपने कर्मचारियों को तो हकीकत से हमेशा रूबरू होने का पाठ तो पढ़ा ही सकते हो।

कुमार हिंदुस्तानी



Monday 15 February, 2010

एजुकेशनल क्राइटेरिया नो बार, मीडिया प्रोफेशन ऐट पार...

इंजीनियर बनने के लिए बीटेक या एमटेक या बीई आदि, डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस या एमडी या एमएस आदि, चाटर्ड अकाउंटेंट बनने के लिए भी विशेष अखिल भारतीय स्तर का पाठ्यक्रम, आईएएस बनने के लिए देश भर के लाखों प्रतिभावान युवाओं की बुद्धिमत्ता के सामने अपनी अक्ल को सर्वश्रेष्ठ साबित करना, मैनेजर बनने के लिए एमबीए या पीजीडीएम, टीचर बनने के लिए पीएचडी या बीएड...न्यूनतम शैक्षिक सीमाएं है। लेकिन मीडिया के लिए कोई भी और कुछ भी चलेगा वाला हिसाब चल रहा है।

चाहे बड़े मीडिया घराने हों या फिर छोटा, शिक्षा के मामले में यहां सब कुछ चलता है। मसलन आपके पास तीन माह का सर्टीफिकेट हैं या फिर तीन साल की बैचलर डिग्री या फिर दो साल की मास्टर डिग्री, सभी कागजी पैमाने पर एक औकात के एक बराबर हैं। आपका जुगाड़ हो या अद्भुत प्रतिभा हो लेकिन डिग्री-डिप्लोमा-सर्टिफिकेट के मामले में मीडिया का कोई जवाब नहीं।

वैसे तो मीडिया हाउसों में सैलरी स्ट्रक्चर भी बड़ा बेतरतीब और अजीब होता है। एक ही ग्रेड के दो कर्मचारियों की तनख्वाह में भी कम-ज्यादा और कभी तो बहुत ज्यादा अंतर होता है। लेकिन प्रतिभा और अनुभव का उस वक्त सर्वाधिक हनन होता है जिस वक्त एक तीन माह का सर्टीफिकेटधारी साधारण स्नातक बॉस बनकर दो वर्ष की मास्टर डिग्रीधारी कनिष्ठ पर हुकुम चलाता है। कम उम्र के साथ कम शिक्षा, बौद्धिक स्तर में उस दो वर्षीय परास्नातक से कितना आगे होगी, बताने की जरूरत नहीं। लेकिन संपादक को पसंद आया और उन्होंने कम पढ़े लिखे को बॉस बना दिया। अब झेलो।

यह स्थिति केवल एक संस्थान की नहीं बल्कि आज देश के सर्वश्रेष्ठ से लेकर आखिरी नंबर तक के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हाउसेज में शिक्षा के साथ यह भद्दा मजाक किया जा रहा है। ज्ञान, प्रतिभा, उम्र, अनुभव आदि विशेषणों को दरनिकार कर अपने सगे-संबंधियों, जानकारों या फिर केवल दयापात्रों को उनके ऊपर हुकुम चलाने की कमान सौंपी जा रही है। देश के सर्वाधिक प्रबुद्ध वर्ग का दर्जा पाने वाली मीडिया में शिक्षा के साथ स्वयं इतना अन्याय सहन नहीं होता।

इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में स्थिति और ज्यादा बुरी है। बिना किसी सर्टीफिकेट, डिप्लोमा या डिग्री के 16-18 साल की लड़कियां चैनलों में दिन भर इधर-उधर कूदती फांदती देखी जा सकती हैं। इनके पास ज्ञान और शिक्षा के अलावा सबकुछ है। चैनलों में इन्हें रखने का मकसद ऑफिस के माहौल को जीवंत रखना, बॉस को आई टॉनिक देना, गेस्ट को वेल्कम करना वगैरह-वगैरह होता है। प्रिंट मीडिया की लाइन में इन्हें आई-कैंडी के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन चैनलों में इन लड़कियों की तनख्वाह और पद का नाम सुनकर अच्छे-अच्छे और पुराने मीडिया के धुरंधर भी पानी भरते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि चैनल को इनसे क्या फायदे मिलते हैं।

यहां पर चैनल का जिक्र करने का इरादा केवल इतना भर है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में ज्ञानवान, होनहार, खूबसूरत और काबिल छात्राएं-युवतियां-लड़कियां भी पत्रकारिता, जनसंचार जैसे डिग्री कोर्स कर रही हैं। उनके पास न केवल शक्ल बल्कि अक्ल भी है। विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता एवं जन संचार जैसे विषय पढऩे वाले छात्रों के पास भी हुनर और अक्ल की कमी नहीं है। लेकिन डिग्री पाने के बाद बिना किसी जुगाड़ और गॉड फादर के वे भी अपनी डिग्री को कोसते हैं।

पिछले कुछ सालों में मैनें स्वयं करीब डेढ़ सौ युवक-युवतियों से मीडिया का हाल जाना। पता चला कि उनका कोई चैनल-अखबार में काम करने वाला बताता है कि- यार तुम्हारे पास सबकुछ है लेकिन लिंक नहीं है। वर्ना देखो...फलां केवल इंटर पास है, न हिंदी आती है और अंग्रेजी भी मासाल्लाह है। लेकिन ट्रेनी असिस्टेंट प्रोड्यूसर या सब एडीटर बना हुआ है। जुगाड़ से काम करवा दिया गया है। जल्द ही डिप्लोमा भी कर लेगा। अगर तुम्हें भी कहीं सेट होना है तो कुछ जुगाड़ तलाशो।

तो भईय्या यह स्थिति हो गई है अपनी मीडिया की। मीडिया में काम करने वाले खुद इस हकीकत से रूबरू हैं। कम शिक्षा और अनुभव वाले आज तर्जुबाधारी और कागजों की डिग्री का ढेर लगाए प्रतिभाशाली लोगों पर राज कर रहे हैं, उन्हें हुकुम दे रहे हैं, बता रहे हैं कि बेटा अब मीडिया पत्रकारिता नहीं रही, बल्कि माई आईडिया हो गई है। इससे वो अभिषेक बच्चन का डायलॉग याद आ गया---(व्हाट एन आईडिया सर जी, एन आईडिया कैन चेंज योर लाइफ)। लेकिन मीडिया में वरिष्ठों का माई आईडिया उनके करीबियों का मिरैकल आईडिया बन गया और मीडिया के माई आईकन बन गए। जबकि पढ़ें फारसी बेचें तेल वाली कहावत मीडिया शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं पर चरितार्थ हो गई।

....अंत में मेरा मीडिया घरानों के मालिकों, संपादकों, प्रोड्यूसर्स जैसे समस्त सम्मानित और काबिल लोगों से आग्रह है कि मीडिया को लोगों की नजरों में गिरने से बचाने के लिए काबिल लोगों की फौज भर्ती करें। इसके लिए पारदर्शी दाखिला प्रणाली बनाएं, परीक्षाएं आयोजित करें, साक्षात्कार लें, जांचें, देखें फिर योग्यता, अनुभव और प्रतिभानुसार उसे पद, वेतन और सुविधाएं मुहैय्या कराएं। प्रतिभा का हनन, सक्षम और समर्थ व्यक्तियों का नैतिक पतन करना है। इसलिए खुद अपने हाथों से इस सम्मानित क्षेत्र को गर्त में न ढकेलें। आने वाली पीढ़ी को एक स्वतंत्र, बुलंद, निरपेक्ष और लक्ष्याधारित मीडिया सौंपनें के लिए अभी से यह सकारात्मक परिवर्तन शुरु करना होगा।

Wednesday 10 February, 2010

जोश सच का गाए जा, कदम-कदम बढ़ाए जा

घंटी बजाओ तो पता चलेगा जोश सच का

आगे बढऩे की ललक होना अच्छा है और कुछ इसी राह पर शायद अमर उजाला चल निकला है। देर से ही सही लेकिन एक अच्छी शुरुआत के लिए अमर उजाला को धन्यवाद व्यक्त करता हूं। किसी बेहतरीन मकसद, लक्ष्य, सोच को सही साबित करने के उद्देश्य से प्रारंभ हुआ यह सफर अब कहां तक चलेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
जरूरी यह जानना है कि अमर उजाला अब कॉरपोरेट कल्चर को आत्मसात करने लगा है। तभी तो दो साल पहले शुरु हुए अमर उजाला के कॉरपोरेटाईजेशन के बाद केवल केबिन में कॉरपोरेट मीटिंग्स, सेमीनार, वर्कशॉप आदि होते थे। लेकिन केबिन की बत्ती बुझने और कर्मियों के बाहर निकलने के साथ ही दिमाग की बत्ती भी गुल हो जाती थी। कॉरपोरेट कल्चर केवल काल्पनिक कथानक का काम करता था।
अब लगता है अमर उजाला एक नए उजाले के साथ तैयार हो रहा है। कॉरपोरेट होने के बाद से अब वो इसका असली मतलब समझना शुरु कर रहा है। जिसका ताजा उदाहरण आजकल अमर उजाला कर्मचारियों के मोबाइल फोन को मिलाने पर सभी को पता चल रहा है। बात हो रही है अखबार कर्मियों के मोबाइल की नई कॉरपोरेट कॉलर ट्यून अमर उजाला की।

'अमर उजाला,
जोश सच का।।
रात हो या सहर,
ना रुकेगा सफर।
मीलों हमें चलना है
ये वक्त बदलना है,
ये वक्त बदलना है
ये वक्त बदलना है....
अमर उजाला,
जोश सच का।।Ó


जैसे ही आप अपने किसी भी अमर उजाला कर्मचारी मित्र का मोबाइल फोन घनघनाएंगे, उक्त कॉलर ट्यून बेहद ही जोशीली आवाज में साफ सुनाई देगी। यह कॉलर ट्यून अमर उजाला द्वारा ही रचित है और इसे गायकों ने बुलंद आवाज दे कर अल्फाजों को यथार्थ बनाने पर जोर डाला है। लेकिन अगर एक-एक अल्फाज पर गौर करें तो देखिए क्या पता चलता है।

'अमर उजाला (काफी पहले से ही सबको पता है, लेकिन कोई भी उजाला अमर नहीं हो सकता, उजाले-अंधेरे का एक अनवरत चक्र है।)Ó
'जोश सच का (यह स्लोगन ताकि सच जिंदा रहे स्लोगन की हत्या करने के बाद दिया गया। यानी सच मर गया लेकिन झूठे जोश को सच कहने में क्या जाता है? )Ó
'रात हो या सहर (काली अंधियारी रात हो या फिर उजाला, केवल जोश दिखेगा, होश के बारे में अभी नहीं पता)Ó
'न रुकेगा यह सफर (अब यह कारवां आगे बढ़ निकला है, जो किसी भी कीमत पर रुकने वाला नहीं)Ó
'मीलों हमें चलना है (यानी, कारवां इतना बढऩे के बाद भी वहीं खड़ा हुआ है। अभी भी न जाने की कितनी दूरी बाकी है जिस पर चलना है। या यूं कहें कि अब सफर की असली शुरुआत हुई है।)Ó
'ये वक्त बदलना है (सबको पता है कि समय को कोई नहीं बदल सकता। यह सदियों से चला आ रहा एक सार्वभौमिक सत्य है कि समय खुद ही आगे चलता और बदलता रहता है। लेकिन अब अमर उजाला ने यह जिम्मेदारी उठाई है। देखना है कि अमर उजाला वक्त बदलता है या फिर आने वाला वक्त अमर उजाला को बदलता है)Ó

एक बात साफ कर दूं कि यहां मैं किसी निजी स्वार्थवश अमर उजाला की बढ़ाई या बुराई नहीं कर रहा हूं। वरन, सभी को उस हकीकत से दो-चार करने की कोशिश कर रहा हूं जो अमर उजाला के बारे में शायद सभी को नहीं पता।
कौव्वा चले हंस की चाल, नुमा मुहावरे पर आंख मूंद विश्वास करते हुए अमर उजाला चला आया है। शशि शेखर के वक्त में समूह ने काफी तरक्की की। लेकिन वो तरक्की वास्तविक न होकर केवल एक नकल भर थी। अमर उजाला ने विश्व के नंबर एक हिंदी दैनिक अखबार दैनिक जागरण की नकल करना प्रारंभ किया और तरक्की के सोपान पाता चला गया।
लेकिन हकीकत में नकल करने वाला नकली ही रह जाता है। वो कभी खुद से एक मिसाल नहीं खड़ी कर सकता। वो जो भी करता है उसमें नकल की बू साफ-साफ सुंघाई देती है। पहले कंटेंट की प्रमुखता से नकल करने के कुछ वक्त बाद खुद को पुन: नकली साबित करने के लिए कॉरपोरेटाइजेशन में खुद को ढालने लगा अमर उजाला। लेकिन कॉरपोरेट मीटिंग्स में शामिल होने वाले 90 फीसदी अमर उजाला कर्मियों को शायद ही पता होता कि दरअसल यह कॉरपोरेट क्या बला है? 'अधिकांश इसे कार से उतर कर कारपेट वाले केबिन में होने वाली फालतू मीटिंग भर ही समझते आए हैं।Ó
सालों से अमर उजाला में काम करते आए असल देशी कर्मचारियों को एकदम से कॉरपोरेट का सीरप पिलाने के बाद से अमर उजाला ने फिर नकल की। अबकी बार नकल थी उसी नंबर वन अखबार के टैबलॉयड आई-नेक्स्ट की। सही समझे- कॉम्पैक्ट लांच करने के पीछे अमर उजाला की यही मंशा थी कि कहीं जागरण बड़े-छोटे अखबार की कहानी सुनाकर पूरे बाजार में कब्जा न कर ले। इसलिए फटाफट नकल की, आधी-अधूरी तैयारी से झटपट कॉम्पैक्ट का प्रकाशन शुरु कर दिया।
उधर जागरण सफलता की एक से एक नई इबारतें लिखता रहा। इसी कड़ी में उसने विश्वप्रसिद्ध इंटरनेट सर्च इंजन याहू के साथ गठजोड़ करके अपना ई-संस्करण सर्वश्रेष्ठ कर लिया। लेकिन बेचारा अमर उजाला अभी तक उस तकनीकी को नहीं समा पाया। और आज भी ऑनलाइन विशेषज्ञों की टीम अमर उजाला की वेबसाइट निर्माण में जुटी है। नकल का कितना दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सका है कि जहां जागरण की एक वेबसाइट है, वहीं नकल के चक्कर में अमर उजाला को तीन वेबसाइट बनानी पड़ गईं। लेकिन सफलता अभी भी नहीं मिल पाई है। रोज सिस्टम हैंग रहता है, वेबसाइट अपडेट नहीं हो पाती जैसी शिकायतें सामने आना आम बात है।
मेरा न केवल अमर उजाला बल्कि उन सभी विकासशील मीडिया घरानों के संपादकों, मालिकों से निवेदन है कि नकल करने वाला हमेशा नकली ही रहता है। इसलिए खुद की अकल पर भरोसा करें। हमेशा अपने कर्मचारियों पर भरोसा जताकर उन्हें कुछ ऐसा नया इजाद करने के लिए कहें जो बाजार में एक मानक बन जाए। कर्मचारियों की प्रतिभा का सही आंकलन कर प्रयोगात्मक रुख भी अपनाएं। सफलता के लिए केवल सही मौके पर सही शुरुआत करने भर की देरी होती है। इसलिए पंरपराओं की दीवारें तोड़कर और दूसरों की नकल छोड़कर खुद से एक ऐसी नई दास्तान बनाएं जो औरों के लिए भी एक मिसाल बन उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करे।

प्यार: देखो, बोलो और सुनो


लव मंकी गांधीगिरी से फैला रहे मोहब्बत की खुशबू

गांधी जी ने कहा था बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। जिन्हें मुंह, आंख और कानों पर हाथ रखे तीन बंदरों को देखकर साफ समझा जा सकता है। वक्त की नब्ज को टटोलते हुए आपसी सौहार्द बढ़ाने और प्रगति के लिए यह संदेश काफी कारगर साबित हुआ। लेकिन अब मशीननुमा बन चुके इंसानों में नफरत तेजी से बढ़ती जा रही है। आपसी रिश्तों में तकरार बढऩे के साथ ही तनाव का स्तर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में यदि एक छोटा और बहुत ही गंभीर संदेश आपको बेहद ही लुभावने और मजेदार तरीके से मिले, तो उसे देखकर एक बारगी मन में प्यार जरूर पैदा होगा।

चार दिन की जिंदगानी में बढ़ती नफरत की दीवार को अब तीन बंदरों ने गांधीगिरी से ढहाने की कमान संभाली है। बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो वाला गांधी जी का संदेश बदलने का वक्त आ चुका है। अब प्यार ही देखो, बोलो और सुनो का संदेश देते हुए लव मंकी ट्रिपलेट्स बाजार से लोगों के दिलों और घरों में पैठ बनाना चालू कर चुके हैं। सी लव, हीयर लव, स्पीक लव का संदेश देते हुए यह खूबसूरत बंदरों की तिकड़ी इस वैलेंटाइन वीक में मोहब्बत की खुशबू हर ओर फैला रही है।

शायद यही सोचते हुए ग्रीटिंग्स एवं उपहार संबंधी उत्पादों की अग्रणी कंपनी आर्चीज ने 'लव मंकी ट्रिपलेट्स की बेहद ही संवेदनशील और कारगर रेंज लांच की है। 249 रुपये कीमत के यह लव मंकी बेहद ही आसान और कारगर तरीके से मोहब्बत का संदेश हर आम और खास तक पहुंचाने में मददगार हो रहे हैं।

'लव मंकी ट्रिपलेट्स
-तीन आकर्षक बंदर एक लाल रंग की बेंच पर साथ में बैठे
-हर बंदर करीब ढाई इंच लंबा और डेढ़ इंच चौड़ा

सी लव।
-पहला आंखों से हाथ लगाकर कुछ देखने की कोशिश कर रहा

हियर लव।
-दूसरा कानों पर हाथ लगाकर कुछ सुनने की कोशिश कर रहा है।

स्पीक लव
तीसरा मुंह में हाथ लगाकर कुछ बोलने की कोशिश कर रहा है।